दिवाली की रात की सुबह
मैंने घर के बाहर
लॉन में, ओसारे पर
फटे हुए, बुझे हुए, चुके हुए
आतिशबाजी के वीरों को पड़ा देखा
सभी मर चुके थे
और चारों और सन्नाटा पसरा था।
उन्नीस सौ सैंतालीस
पंद्रह अगस्त की सुबह
महाभारत युद्ध के बाद की
कुहिलिकाच्छन्न सुबह।
नजर दौड़ाई चारों ओर
न कोई कुंती थी
न गांधारी
न सुभद्रा।
उत्तरा मर चुकी थी
भ्रूण को पेट में लिये।
काहे का परीक्षित?
कृष्ण अगोचर थे।
तब से अब तक
सन्नाटे का साम्राज्य है
धर्म की स्थापना के नाम पर।