क्या
दिया मैंने उस गाँव को
जिसकी हवा में मैंने
पहली साँस ली थी
जिसकी ज़मीन गलीचे सी
नरम थी
जिस पर चलते
मेरे घुटने न छिले थे
जहाँ मैंने
बोलना सीखा तुतला-तुतलाकर!
क्या दिया मैंने उस
जराजीर्ण स्कूल को
जहाँ मैंने सीखा ककहरा,
बीसी तक पहाड़े
ए से एपल और बी से बुक,
जो अब भी काम आते हैं!
क्या दिया मैंने उस
कॉलिज को
जिसने दी मुफ्त में
शिक्षा
और पहला वजीफ़ा,
जिससे खरीदी किताबें अब
भी मेरे पास हैं
यादगार के तौर पर
!
क्या दिया मैंने लौटाकर
उस शिक्षक को
जिसने सैकड़ों घंटे
मुझपर लगाये
पढ़कर मूक सूखे
ओठों के हरुफ़
जिसने मुझे
नाश्ते भी कराये
निःशुल्क, अनमोल, विना
मोल!
क्या दिया मैंने लौटाकर
उस भाषा को,
जिसकी कविताओं ने
स्पंदन जगाये
जिसकी कहानियों ने मेरा
चरित्र सिरजा,
जिसके मुहावरे गहराई तक
उतर गए हैं,
करती मुझमें आत्मज्ञान
का संचारण!
हाँ, मैं फिर जनम
लूँगा,
बार-बार, एक नहीं, सौ
जनम लूँगा
चुकाने ऋण जो मुझ
पर है,
यह मेरा निजी मामला है,
बाबाजी, मत दो मुझे
निर्वाण के उपदेश।
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