उन इबारतों को पढ़कर मैं अर्थ ढूँढता,
जो सदियों की गर्मी, सर्दी, बरखा खाकर,
काली, उजली, उलझी, धुँधली रेखाएँ हैं,
चेहरे पर जैसे यादों के अश्रु सूखते,
ज्वार छोड़ते जैसे बालू पर हस्ताक्षर।
मेरे कहने का अब कोई अर्थ न लेना,
मैं अतीत से बातें करता बोल रहा हूँ,
गह्वर से आती ध्वनि-प्रतिध्वनि की बौछारें
इंगित करती नहीं श्रोत ध्वनि का, ठगती हैं;
उस प्रलाप को भ्रमवश तुम संलाप न कहना।
मैं मिट्टी का पूत, तुम्हारा नभ ज्योतिर्मय,
मैं त्रसरेणु निरीह, और आलोक-किरण तुम,
मेरा क्या उत्थान, क्या पतन, या फिर विचरण,
मैं करता हूँ महज़ प्रतीक्षा एक फूँक की,
जो ढकेल देगी मुझको निःशेष तिमिर में।
वर्तमान क्या, क्या भविष्य है उस रजकण का,
जो क्रीड़ा-कंदुक है सांसों के हाथों में,
जिसका आलोकित अथवा तमवेष्ठित होना
निर्भर है आलोक-किरण पर, जो आती है,
उन होठों से जो करते व्यंगोपहास हैं!
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