आज सबेरे मैंने देखा,
उस कोने पर सड़क-किनारे
मरी पड़ी है एक गाय,
फूला है उसका पेट,
फेन सा सूख चुका है
निकल पेट से पानी,
उस पर भिन-भिन करती
कुछ उड़ती, कुछ बैठी दल में
निपट घिनौनी, जी उबकाती
निडर मक्खियाँ।
घास नहीं है।
बड़े पार्क बाड़े के अंदर
हरे हरे हैं, जी ललचाते,
लठ्ठ लिए दरवान खड़े हैं।
पार्क हरे हैं,
शाम-सुबह हम वहां टहलते,
पार्क आदमी की ख़ातिर हैं।
पशु है गाय,
गाय का घुसना किसी पार्क में
भूख मिटाने, मान्य नहीं है।
दूर-दूर तक
बदल गए मैदान शहर में।
भूखी गाएँ
कूड़ों पर मुँह मार रही हैं;
पॉलीथिन के थैले हैं कूड़े के अंदर,
जिसमें दूध भरा बिकता है।
दूध हमारे लिए निकलता,
बच जाते हैं पॉलीथिन के खाली थैले
उसकी ख़ातिर
जिसने हमको दूध दिया था।
भूखी गाय करे क्या आख़िर,
आग पेट की जो न कराए,
है मज़बूर निगलने थैले पॉलीथिन के।
भरता पेट, मग़र वे थैले खाद्य नहीं हैं,
विष का करते काम, फूलता पेट गाय का,
कुछ घंटे छटपट करती है,
मृत्यु जीतती, गाय हार कर मर जाती है।
ऐसे में ही हारी होगी,
वो बेचारी
जिसकी लाश पड़ी है, देखो
उस कोने पर सड़क-किनारे।
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