मैं भी ढूंढता था
अपने खोये भारत को
गली-गली, डगर-डगर
मन-ही-मन।
एक दिन उसे देखा
रेलवे प्लैटफॉर्म के पास
चीथड़ों में लिपटा
घूरे पर फिंके पत्तलों से
बीनकर कुछ खाता।
मैंने सोचा
क्या हालत हो गई
उस भले हाकिम की
जिसने न्याय करके
लिया था पंगा
जबर्दस्त शासन से।
मेरी गाड़ी आ गयी तब तक
मुझे ऑफिस पहुंचना था
दोपहर तक।
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