शुक्रवार, 4 जून 2021

प्रान्तर

एक प्रान्तर का मुसाफिर पूछ किसको राह जाने 

आत्ममोहित पेड़-पौधे कब लगे मंजिल दिखाने।

चांद अपनी तारिकाओं में स्वयं उलझा हुआ है 

रात रूठी है, न जानें क्या  कहां किसने कहा है।

अश्रुकण क्यों ओस बनकर कपोलों पर छा गये हैं

क्यों निशा के  लट उलझकर बादलों-से आ गये हैं।

क्लांत क्यों दिखते अनोकह क्यों हवाएं थम गई हैं

ध्वान्त यों विश्रांत क्यों है,  क्यों दिशाएं जम गई हैं।

कौन है जो मूक बैठा यों नियति की बात माने

स्तब्ध प्रान्तर का मुसाफ़िर पूछ किसको राह जाने ।

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