मेरा इतना भाग्य, धरा पर
नभ ने आने को सोचा है !
मुक्त करा कारा से मुझको
लेकर जाने को सोचा है !
इतनी कृपा ! कहाँ थे अब तक !
नाहक़ इतनी देर लगायी !
नाहक़ इतनी देर लगायी !
लगता है, आवाज़ हमारी
उन तक, पहले, पहुँच न पायी !
देव दयामय की आगवनी
मैं दरिद्र क्या कर पाऊँगा ?
मैं मिट्टी का, वे तेजोमय
कैसा अर्चन कर पाऊँगा ?
क्या नैवेद्य चढ़ाऊँगा मैं ?
मैं तो एक अकिंचन नर हूँ !
मेरा सब कुछ मिटटी का है
मैं निर्धन, निरीह, कातर हूँ !
हाँ, अब आया याद, हमारा
कुछ भी नहीं प्राण सा निर्मल
क्यों न इसे नैवेद्य चढ़ाऊँ ?
यही बने अर्चन का सम्बल !
आओ, प्रभु, मैं विगतमोह हूँ
तेरी पूजा कर पाऊँगा ।
तेरे चरणोँ में छोटी-सी
भेंट प्राण की रख पाऊँगा ।
अब मैं खुश हूँ, अभिनन्दन है !
सारे दुख जाने वाले हैं ।
मृत्युदेव आने वाले हैं ।
-----
रबीन्द्रनाथ ठाकुर की एक कविता से अनुप्राणित
रबीन्द्रनाथ ठाकुर की एक कविता से अनुप्राणित
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें