बेटी को पढ़ाया
ब्याह उसका कराया
बेटी गयी ससुराल
समधी जी मालामाल।
बेटे को पढ़ाया
बहुत पैसा लुटाया
उसने घर अपना
किसी शहर में बसाया।
गांव में अकेले
हम पूजा पाठ करते
चाहत बस एक बची
क्यों न जल्द मरते!
बेटी को पढ़ाया
ब्याह उसका कराया
बेटी गयी ससुराल
समधी जी मालामाल।
बेटे को पढ़ाया
बहुत पैसा लुटाया
उसने घर अपना
किसी शहर में बसाया।
गांव में अकेले
हम पूजा पाठ करते
चाहत बस एक बची
क्यों न जल्द मरते!
मैं सोचता हूं कि भारत
ऋषियों का नहीं
पिशाचों का देश है
नहीं तो लाशों के कफ़न चुराकर
लोग व्यापार नहीं करते
और न ही सेंकते रोटियां
चिंताओं की आग पर।
कह दो, यार
मैं ग़लत सोचता हूं
तुम्हारा कहना झट मान लूंगा
आत्मप्रवंचना की खातिर।
मैं रोना नहीं चाहता
क्योंकि मैं एक धीर गंभीर पुरुष हूं
रोना तो कायरों या स्त्रियों की
पुख्ता पहचान है।
लेकिन ये बेवकूफ आंखें
भर ही आती हैं
पलकें नहीं संभाल पाती हैं
आंसुओं का भार।
युंग कहते थे
कि मर्द के अचेतन में
एक अनिमा रहती है
एक प्रबल नारी
जो चेतन पर कभी-कभार
पड़ती है भारी।
मेरा दर्द कौन सुनेगा?
मेरी चीख कौन समझेगा?
मेरी चारों ओर लाशें ही लाशें हैं
या लाशों पर कपसते लोग
या लाशों पर बोली लगाते लोग
या लाशों से पैसे कमाते लोग
चिल्लाते लोग, बिलबिलाते लोग
इस कोलाहल में
कौन सुनेगा मेरी कराह?
मुझे कभी का मर जाना चाहिए था
कर लेनी चाहिए थी आत्महत्या
लेकिन मैं जिन्दा हूं
क्योंकि बेशर्म हूं
गंदी नाली का घिनाया कीड़ा हूं।
जानते हैं आप?
कीड़े नालियों में
बहुत दिन जीते हैं
मैं नहीं जानता
कि किसी कीड़े ने कर ली खुदकुशी
अपनी जिंदगी से ऊब कर
और यह भी नहीं जानता
कि कीड़े भारत के
नागरिक होते या नहीं होते।
कीड़े संविधान नहीं पढ़ते
वह तो आदमी ने आदमी के लिए रचा है
सुना है, उसमें
नागरिकों के मौलिक अधिकारों पर
लंबा लेक्चर है
पता नहीं, कीड़ों के मौलिक अधिकारों पर
क्या कहता है संविधान।
बकरे मिमियाते है
शेर दहाड़ते है
कुत्ते भूंकते है
गधे रेंकते हैं।
सांप फुंफकारते हैं
मेंढ़क टर्राते हैं
गवैये गाते हैं
मूरख चिल्लाते हैं।
फेसबुक पर सभी
अपनी-अपनी जात बता जाते हैं।
पुरखे हमारे
जन्मे और मरे भी वहीं
वह जमीन हमें ईश्वर ने दी थी
कुलदेवता ने
लेकर सौगंध
कि हम उसे आबाद रखेंगे
पितरों ने दी थी हमें मातृभूमि।
चिड़ियां भी चिपकी नहीं रहतीं
अपने घोंसलों से
भटकती हैं कहां नहीं
खाने की खोज में
लेकिन लौट आती हैं
शाम तक बसेरे में
हां, चिड़ियां भी।
हम नहीं घर लौटे
उस जादू की नगरी से
जहां परदेशी मेंढ़े बन जाते हैं
जादू असर करता है
पेट के रास्ते से दिलो-दिमाग पर
हमने कहा उसे अपना नया घर
कभी नहीं लौट पाए अपने घर।
हमें मिला पुरखों का अभिशाप
मा प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः
हां, वहीं, या फिर और कहीं,
भटक और कमा
वहीं सबकुछ गंवा
गज-भर ज़मीं भी न मिले
तुम्हें मातृभूमि में
भटकती रहे अंतिम राख
अनचीन्ही हवाओं में
ढूंढती मुकाम।
तुम मेरे सपनों में आए
लेकिन वह सपना लंबा था
टूट गया कुछ यादें देकर।
कल फिर तुम सपनों में आए
अपनी मैं कुछ बता रहा था
पर तुम को शायद जल्दी थी।
सोने जगने का क्रम शायद
उस मुहूर्त तक चला करेगा
जब तक सांसें रुकी नहीं हैं।
जब सो जाऊं चिरनिद्रा में
स्वप्निल आंखों में आ जाना
तब जाने की बात न करना।
ओ मेरे सपनों के साथी
मेरे ये सपने अपने हैं
ये तेरे मेरे सपने हैं।
सुनो और जानो
कि मैं भी तुम्हारी तरह
हाड़-मांस का बना सचेतन पुतला हूं