मेरा दर्द कौन सुनेगा?
मेरी चीख कौन समझेगा?
मेरी चारों ओर लाशें ही लाशें हैं
या लाशों पर कपसते लोग
या लाशों पर बोली लगाते लोग
या लाशों से पैसे कमाते लोग
चिल्लाते लोग, बिलबिलाते लोग
इस कोलाहल में
कौन सुनेगा मेरी कराह?
मुझे कभी का मर जाना चाहिए था
कर लेनी चाहिए थी आत्महत्या
लेकिन मैं जिन्दा हूं
क्योंकि बेशर्म हूं
गंदी नाली का घिनाया कीड़ा हूं।
जानते हैं आप?
कीड़े नालियों में
बहुत दिन जीते हैं
मैं नहीं जानता
कि किसी कीड़े ने कर ली खुदकुशी
अपनी जिंदगी से ऊब कर
और यह भी नहीं जानता
कि कीड़े भारत के
नागरिक होते या नहीं होते।
कीड़े संविधान नहीं पढ़ते
वह तो आदमी ने आदमी के लिए रचा है
सुना है, उसमें
नागरिकों के मौलिक अधिकारों पर
लंबा लेक्चर है
पता नहीं, कीड़ों के मौलिक अधिकारों पर
क्या कहता है संविधान।
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