गुरुवार, 20 मई 2021

डाइएस्पर॔ फॉरइवर

पुरखे हमारे 

जन्मे और मरे भी वहीं

वह जमीन हमें ईश्वर ने दी थी

कुलदेवता ने

लेकर सौगंध

कि हम उसे आबाद रखेंगे

पितरों ने दी थी हमें मातृभूमि।


चिड़ियां भी चिपकी नहीं रहतीं

अपने घोंसलों से

भटकती हैं कहां नहीं

खाने की खोज में

लेकिन लौट आती हैं

शाम तक बसेरे में

हां, चिड़ियां भी।


हम नहीं घर लौटे

उस जादू की नगरी से

जहां परदेशी मेंढ़े बन जाते हैं

जादू असर करता है

पेट के रास्ते से दिलो-दिमाग पर

हमने कहा उसे अपना नया घर

कभी नहीं लौट पाए अपने घर।


हमें मिला पुरखों का अभिशाप

मा प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः

हां, वहीं, या फिर और कहीं,

भटक और कमा

वहीं सबकुछ गंवा

गज-भर ज़मीं भी न मिले 

तुम्हें मातृभूमि में

भटकती रहे अंतिम राख

अनचीन्ही हवाओं में

ढूंढती मुकाम।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें