मंगलवार, 2 सितंबर 2014

चुन दो दरख़्त, फुनगी पर चढ़ जाऊँगा

कविते,
तुम मेरे शतशः अनुनय के बाद भी 
चाहती नहीं हो कि बैठो पृष्ठ-पर्यंक पर,
संभवतः इसलिए कि मैं अनुरोध करता हूँ
संस्कृत-सी भाषा में,
जिसमें पुरातन से प्रेम स्वतः परिलक्षित है,
पर तुम हो नूतन, अद्यतन, अछिञ्जल

लेकिन, यक़ीन करो, करने तुम्हें खुश,
मैंने शुरू कर दिया है सीखना उर्दू,
जिससे आशिक़ी ख़ुद-ब-ख़ुद बरसती है।    
शायद, तुम चाहती हो भीगना उस फ़ुहार में                     
जिसे पाकर ज़मीन गीली तक नहीं होती,
लेकिन फ़िज़ा डूब जाती है एक सोंधी-सी ख़ुशबू में।

कविते,
तुम बांधना नहीं चाहती हो पैरों में नूपुर,
बंधना नहीं पसंद तुम्हें छंदों के बंधन में,
घर के कोरस तुम्हें रास नहीं आते,
तुम्हें पसंद नहीं रहना कमलकोष पर
बन कर किंजल्क, कोमल पँखुड़ियोँ के बीच।
मिलना चाहती हो तुम कहीं स्वच्छंद,
ख़ुद अपने छंद बन, 
खेतों-खलिहानों में, या किसी कैफ़े में,
और रखना चाहती हो उतना ही रिश्ता,
कि मेरे जीवन में दो ही घड़ियाँ हों
एक तेरे आने के पहले,
और दूसरी तेरे जाने के बाद। 

हाँ, तुम्हें ग़िला है मेरी जुबाँ से,
लफ़्ज़ों के संयत इश्तेमाल से,
लेकिन अगर तुम थिरक उठती हो
सुनकर वे जुमले
जो होस्टलों में गूँजते हैँ,
तो में आगे से स्लैंग्स में ही बोलूँगा,
करूँगा फ़र्क नहीं क्या शिष्ट क्या अशिष्ट,
यदि है यही तुम्हारा इष्ट।  
  
तुम कहती हो तो घी गोबर में मिलाऊँगा,
चुन दो दरख़्त, फुनगी पर चढ़ जाऊँगा।   


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