सुदूर दक्षिण -
जलनिधि के तट पर -
एक वृद्ध, तेजोमय,
दे रहा था अपना अंतिम प्रवचन।
सुनने परशुराम का समुद्रोपनिषद्,
सामने बैठे थे अगणित श्रोतागण।
तर्जनी से इंगित कर वेलाकुल समुद्र को,
बोले परशुराम, देखते हो यह पारावार ?
कितना विशाल, सशक्त अपरिमित है!
चाहे तो लील ले समग्र धरणी को।
क्या है समुद्रतट ?
तट की परिभाषा
मात्र लीला है जलधि की।
जहाँ पर रुक गए, वहीँ तक तट है।
किन्तु यह लीला, यह सीमा स्वयमारोपित,
देती है निरंतर जनजीवन को उपदेश,
ओ सबल, ओ सशक्त,
रखना शक्तिप्रयोग मर्यादित,
रक्षण है, भक्षण नहीं, शक्ति की परिभाषा,
यही महासागर का मानव को है सन्देश!
मेरी ओर देखो,
मैं था अनन्य पितृभक्त,
पिता की आज्ञा पर माँ की हत्या की।
पितृभक्ति है वरेण्य,
किन्तु वरेण्य बन जाता है निंदनीय
लाँघ कर सीमा, विखंडित कर मर्यादा।
मेरी ओर देखो,
मैंने प्रतिकार किया क्षात्र अन्याय का,
लेकर उद्देश्य कि करूँगा खड़्ग को सीमित,
मैं ख़ुद निस्सीम हुआ।
किया निर्मूल क्षत्रियों को इक्कीस बार।
वह प्रतिकार पूर्णतः अमर्यादित था,
वह था अन्याय का अन्याय से प्रतिकार,
काले कम्बल को काजल से रँगकर।
ऐसा प्रतिकार कभी मत करना।
मेरी ओर देखो,
मैंने उजाड़े अनेक पुर, अनेक ग्राम,
बना दिए कुंड अनेक क्षात्ररक्त के,
शायद कहीं दिखता था जलपूर्ण सर,
सारे सर रोहित थे, लोहित भरे हुए।
फिर मुझे आया ध्यान, कृत्य यह हेय है,
मानव की तृषा को केवल जल ही पेय है,
रक्त तो केवल पिशाचों का प्रेय है।
तब मैंने सोचा नए गाँव मैं बसाऊँगा,
हर बसोबास में जलपूर्ण सर खुदाऊँगा।
साफ हुए जंगल, हजारों पुर बन गए,
नर के कल्याण हित जंगल उजड़ गये।
चलने को सड़क है, पर रुकने को छाया नहीं,
देखते हो, बरसों से पावस है आया नहीं।
खेत मरुभूमि हुए, आतप प्रचंड है,
यह सब मर्यादातिक्रमण का दंड है।
अत एव मेरा यह अंतिम निष्कर्ष है,
मर्यादापालन से होता उत्कर्ष है।
शक्ति का दुरुपयोग केवल अनर्थ है,
अति के प्रति प्रेम पूर्णरूपेण व्यर्थ है।
हरस्व भगवन मनुष्याणां भ्रांतिः,
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।
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