गुरुवार, 4 सितंबर 2014

रेखा

मैं रेखा हूँ,
रेखा, यानी लकीर। 

मैं जबतक पड़ी हूँ तुम्हारे नीचे
तभी तक तुम विशिष्ट हो, 
ध्यातव्य हो, रेखांकित हो। 
पर ध्यान रखना,
जिस दिन मैं खड़ी हो जाऊँगी उठकर,
बन जाऊँगी विराम,
विराम तुम्हारे अधिनायकत्व पर,
फिर तुम विशिष्ट नहीं रह पाओगे। 

जानते हो,
अगर मैं तिरछी हो जाऊँ,
तो तुम बँट जाओगे,
या रह जाओगे टूट कर अंशमात्र
एक बँटा दो भर।
एक मैं, 
जबतक ख़ुदी से नीचे रहती हूँ,
तुम्हारी ख़ुदी छत पर बैठकर 
हुक़ूमत करती है। 

और भी सुनो, 
मेरे तिरछी होने का अर्थ,
मैं तुम्हारे आगे रहूँ या पीछे,
तुम रह जाओगे एक अस्तित्वमात्र 
जिसका महत्व 'या' के 
परवर्ती अथवा पूर्ववर्ती सा होता है,
विस्थाप्य और वहुधा परिहार्य। 

मैं जोड़ती भी हूँ 
एकाधिक अस्तित्वों को।  
में समास बनाती हूँ,
विलीन करके ख़ुद का अस्तित्व
कुटुम्बिनी कहलाती हूँ।       
तुम्हें
केवल तुम्हें नहीं,
तुम लोगों को मूल्य, अर्थ 
और प्रायः विशेषार्थ देती हूँ। 

लेकिन तुम नहीं मानोगे
कि कुटुम्बिनी से कुटुम्ब बनता है। 
तुम्हारे संबंधों का व्याकरण
झूठ-साँच गढ़ता है।      
पर याद रखना,
जिस दिन मैं विग्रह पर उतर आऊँगी,
तुम सब अकेले खड़े मिलोगे। 
मेरे भ्रूभंगों से तुम कट कर रह जाओगे,
घर से, बाहर से, पूरे संसार से। 


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