मंगलवार, 23 सितंबर 2014

दाम्यत दत्त दयध्वम्

                (1)

असुरों, मनुष्यों, देवताओं ने 
की प्रजापति की बहुत-बहुत मिन्नत।
पूछा, बताएँ, क्या है हमारा श्रेय, 
कैसे हम होंगे सफल, सुखी, उन्नत?
          
कहा प्रजापति ने, कल सुबह आना,
पर अपना एक एक नेता चुन लाना,
हर दल के नेता को एकल प्रकोष्ठ में,
मैंने सोचा है वीजमन्त्र बतलाना। 

आ गए अगले दिन सारे के सारे,
प्रजापति भी ठीक समय पर पधारे। 
देवों के नेता को अंदर बुलाया 
मंत्र दे 'द' का, पूछा, क्या समझ आया?

बोला देवनेता, यह मन्त्र तो महान है,
अपनी इन्द्रियाँ हैं चपल, हमें यह भान है।                      
दमन वासनाओं का, दमन भावनाओं का
दमन इन्द्रियों का, मंत्रार्थ यह प्रमाण है। 

प्रजापति बोले, गच्छ, दाम्यत, दाम्यत
मनोविकाराणि, न भोगानि काम्यत। 

तब नरनेता घुसा प्रकोष्ठ के अंदर
पूछा प्रजापति ने, 'द' का मंत्र देकर,
बोलो मानव, तुम्हें क्या समझ आया?
'दत्त', 'करो दान', अर्थ नर ने बतलाया। 

हाँ, संग्रह, अधिकार, वस्तुमोह, संचय, 
इन्ही प्रवृत्तियों से है मानव पतन का भय,
अतः, बोले प्रजापति, दीनेभ्यो दीयताम् 
न संग्रहणेन, वरं दानेन प्रीयताम्। 

फिर प्रजापति ने असुरनेता को बुलाया
तेरा मंत्र 'द' है, कहो क्या समझ आया?
बोला असुर, 'दया' ही इस मंत्र का अर्थ है। 
दयाभाव में ही असुरजाति का उत्कर्ष है। 

बोले प्रजापति, गच्छ, सततं ‘दयध्वम्’ 
सर्वजीवेभ्यो अक्रूरताम् कुर्वध्वम्। 

          (2) 

सारी यह बात छपी, समाचार बन गयी
बात मुझ 'इतर' की सीठी-सी छन गयी।
देव, असुर, मनुज, सभी चर्चा के विषय थे,
इडियट से इलियट तक उपनिषदमय थे। 

मैं भी गया अंदर था 'द' का मंत्र पाने को 
दस प्रतिशत कोटे पर अपना दाय लाने को। 
पूछा मुझको भी था 'द' का अर्थ क्या होगा?
बोलो आरण्यक, तेरे लिए वह भला होगा। 

मैंने कहा था, 'द' का अर्थ दारू है,
फ़र्क नहीं पड़ता, इंगलिश या बाज़ारू है। 
प्रजापति बोले थे, भूलो 'दाम्यत, दत्त, दयध्वम्'
जाओ घर, प्रतिदिन पियध्वम् पियध्वम् । 

सभा हो, सिलेक्शन हो, चाहे सेमिनार हो,
सारे निर्णय का एक बोतल पर भार हो। 
दारू पर निछावर आरण्यक का तंत्र हो।  
'पियध्वम् पियध्वम्' तुम्हारा वीजमंत्र हो। 
   
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इतर = जो सुर, असुर, मानव से अन्य है; देवेतर, असुरेतर एवं मनुष्येतर      

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