शनिवार, 27 सितंबर 2014

रोटी

रोटी, गरम गरम,
गोल-गोल, फूली हुई। 

जब-जब मैं तुम्हारी तरफ देखता हूँ
मेरे जेहन में आ जाते हैं सिलसिलेवार अक़्स,
गेंहू का पिसकर आटा बनना,
आटे का गुंधना, टुकड़ों में बँटना,
बेलन से बिलना, तवे पर चढ़ना,
हर मिनट बाद, सिंक, पहलू बदलना,
फिर तवे से उतर बंद होना देग में,
ऊमस भरे देग में। 

ओ रोटी,
मैं तेरे पीछे भागते हुए,
कुछ तेरे जैसा ही हो गया हूँ।   
मुझे अद्वैत-बोध होता है;
मैं तुम हूँ, या तुम मैं हो
हमारा द्वैत-भाव माया है, भ्रम है। 

तेरे लिए भागकर,
हाँ, तेरे लिए भागकर,
मैंने छोड़ा
माँ का आँचल,
कटोरा दूध-भरा,
बचपन के दोस्त 
पिछवाड़े की अमराई,
पीपल की छाँह,
पलाशों के जंगल,
नदिया की रेत,
और भी बहुत कुछ। 

यान्ति देवव्रताः देवान,
. . .
यान्ति मद्याजिनोपि माम्। 

ओ रोटी,
तुमने बड़ी अच्छी की गीता की व्याख्या।
या कि तुम वही हो 
जिसने दिखाया था विराट रूप,
या जिसकी अनुभूति बोल उठी थी
अन्नमेव ब्रह्म। 
तुमने मुझे कराया अनुभूत
अहमन्नम् अहमन्नम् अहमन्नम्।   
       

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