शांतिपाठ के बाद शिष्य ने पूछा,
ऋषिप्रवर,
बताएँ, पाप क्या है?
क्या है सत्य, क्या है असत्य?
इस पर आपका क्या फ़ैसला है?
इस महाप्रश्न पर गुरु हो गए गभीर,
कुछ क्षण बाद घन-तिमिर को चीर,
ओतप्रोत करती चतुर्दिक पल भर को
छिटकी बिजली की पतली-सी लकीर।
चपला की चमक, गह्वरागत निनाद में
शिष्य ने देखा और सुना यह पापोपनिषद्।
स्वार्थपर मौन पाप है ।
अगर तुम उत्तर जानते हो,
वह सर्वतोभद्र है, सही है, यह मानते हो,
तो, तुम्हारी चुप्पी समाज को अभिशाप है,
अपने स्वार्थ के लिए मुँह बंद रखना पाप है
।
मानता हूँ,
तुम्हारी आवाज़
घुल जायेगी घनमंडल में।
पर रखना याद,
जीवन क्षणिक है।
मृत्यु अंतिम सत्य है,
पतन अंतिम सत्य है,
तमस अंतिम सत्य है
अज्ञान अंतिम सत्य है।
जो स्वयंभू हो,
स्वतः आधारित हो,
स्वतः पालित हो,
स्वतः फैलता हो,
मध्यतः उद्वेलित-सा दिखकर भी,
अंततः स्वतः स्थापित हो,
वही चिरंतन है,
अजन्मा है,
अविनाशी है,
अविकारी है,
सत्य है।
तुम्हारी आवाज़ सत्य नहीं हो सकती,
वह एक आदर्श है।
सत्य 'है', आदर्श 'होना चाहिए' है।
सत्य की धूल से
वहुधा
आदर्श ढँक जाता है;
तब खुद अपना ही चेहरा
खंडित नज़र आता है।
आदर्श विस्थापित हो जायेगा
सत्य से, मौन
से, मृत्यु से,
पतन से, तमस से, अज्ञान से,
या उद्दाम कोलाहल से।
तुम्हारी आवाज़
नक्कारखाने में तूती की आवाज़ है।
पर स्मरण रहे,
जीवन क्षणिक है,
वह बिजली की चमक है।
पर वही स्फुलिंग
परिवर्तन का घटक है।
जियो, शिष्य, जियो,
प्रज्वलित होकर मुहूर्तमात्र,
न कि धूमायित
जीवस्व शरदः शतम्।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।
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