उस रात भी मेघ
यूँ ही घिर आए थे
ऐसा ही झंझावात
चतुर्दिक मसिस्नात
किन्तु, कहने को
कि रहना सतर्क,
अब कोई रहा तर्क नहीं ।
उसे रख तुमने दिया
अपने अंक से निकाल
कर वस्त्रावेष्ठित, सँभाल,
धात्री की गोद में
जो है महीयसी
माँ की भी माँ
और स्वर्गादपि गरीयसी ।
जिनके आँचल की छाँह
अंतक की भी पनाह
नतशिर, सम्पुटकर है
काल जिनकी शास्ति मान
अब उनकी गोद से
उसे छीनेगा कौन ?
चलते रहें झंझावात,
बरसते रहें ये मेघ
करते अविकल प्रपात,
दामिनी तड़कती रहे,
ज्यों करती अट्टहास,
यामिनी त्रियामा बने
चाहे, शतयामा बने
रुत ग्रीष्म, पावस बने
शिशिर या अनामा
बने।
वात से अशोष्य हो,
प्रपात से अमेह्य हो,
दामिनी-अदम्य हो,
प्रकाश-सी वरेण्य हो,
खेलती उषा के संग,
हँसती कलियों के रंग,
रोजी अब प्रकृति है
अश्रु-सिक्त स्मृति है।
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