सोमवार, 18 अगस्त 2014

राम, मैं तेरे हृदय की ऊर्मियों को जानता हूँ

राम, मैं तेरे हृदय की ऊर्मियों को जानता हूँ,  
अंशतः, पूरा नहीं तो, मैं तुम्हें पहचानता हूँ ।  

थी सपत्नी-दंश से व्याकुल निरंतर माँ तुम्हारी,
एक खूँटे से बँधी थी गाय जैसी वह बिचारी,
दूर कोने में भवन के जी रही एकांत जीवन, 
एक तेरे आसरे पर ही टिके थे प्राण, तन, मन, 
मौन तुम थे देखते, तेरे अधर स्मिति ढो रहे थे, 
जानता हूँ मैं, प्रफुल्लित नैन से तुम रो रहे थे ।     

वह करुण स्मिति हर हृदय पर छाप अपना छोड़ती थी, 
एक सरिता में हृदय के उत्स सारे जोड़ती थी,
सोचते थे लोग, तुम राजा बने तो हर्ष होगा, 
हर गिरे, भूखे, प्रपीड़ित व्यक्ति का उत्कर्ष होगा, 
तुम व्यथा का अर्थ अपने अनुभवों से जानते थे, 
लोकहित में त्याग को कर्तव्य अपना मानते थे । 

एक आँधी आ गयी, जब बात आगे बढ़ रही थी, 
स्वार्थपर षड्यंत्र तब तेरी विमाता गढ़ रही थी, 
लोग थे अनभिज्ञ, पर तुम बात सारी जानते थे, 
इसलिये भूकंप के पदचाप को पहचानते थे, 
कर सके अम्लानमुख स्वागत नियति का तुम इसी से, 
ले सके वनवास का तोहफ़ा अनोखा तुम ख़ुशी से । 

पर, सहन क्या कर सका जनमत भरत का भूप होना     
एक कुटिलापुत्र का श्रीराम, या प्रतिरूप, होना 
आग थी सारी अयोध्या, ऊर्मिमय विप्लव स्फुटित था 
टहनियों पर पेड़ के आक्रोश भीषण पल्लवित था                
भाग कर आया भरत लेने दवा उस ज्वार का था 
ठीक कहता था लखन, आना नहीं वह प्यार का था । 

जानते थे तुम कि जनता मान तेरी बात लेगी     
तुम अगर सन्देश दोगे, तो, भरत का साथ देगी।
पादुका भेजी भरत सँग, थी वही संदेश तेरा,  
थी वही निर्देश तेरा, थी वही आदेश तेरा। 
और क्या था अन्यथा जो हो सके सन्देश संबल,     
त्याज्य अब कुछ भी नहीं, बस, तन ढँके था एक वल्कल।  

राम, सोने की बनी थी पादुका, क्या सच यही है?
साथ वल्कल का कनक से, बात यह जमती नहीं है । 
क्या भरत, तज कर कनक को, काष्ठपूजा में निरत था?   
क्या कनक के पीठ पर रख काष्ठ, प्रभुता से विरत था?
सच यही है, पादुका प्रतिरूप ढल कर बन गयी थी,     
राम की ही पादुका है, किंवदन्ती चल गयी थी । 

अस्तु, नंगे पाँव तुम आगे चले, जंगल सघन था,  
वीथियां कंटकमयी, दुस्साध्य ही आवागमन था ।
मृत्तिका में रंग भरते पाँव तेरे छिल गये थे,
छाप पग के पत्थरों पर फूल जैसे खिल गये थे।
रक्त से क्वाँरी धरा ने मांग अपनी थी सजायी, 
पक्षियों ने गान गाये, वायु ने बंशी बजायी । 

इस अनोखे व्याह पर सीता कभी कुछ भी न बोली,  
कौन जाने, याकि करती हो अकेले में ठिठोली, 
प्रण किया था तुम न दोगे सौत की सौगात लाकर,    
हो महल या वन, रखोगे तुम उसे रानी बनाकर।
क्या इसीसे जंगलों की ख़ाक तुम यूँ छानते थे, 
और भूपति यदि बने, प्रण-भंग होगा, मानते थे ?

ख़ैर, छोड़ो, ढल गया दिन, सूर्य ने ले ली बिदाई, 
चाँदनी में एक कुटिया फूस की तुमने बनायी, 
कल करें एकत्र फल या मूल, निर्णय हो चुका था,
मात्र जल पीकर ज़मीं पर प्यार तेरा सो चुका था ।
राम, तुम रोये नहीं थे, पर कहो, क्या सो सके थे ?
चिन्तनोर्मिल हलचलों में स्वस्थमन क्या हो सके थे ? 
              
रात बीती, दिन हुआ, फिर दिन ढला औ रात आयी,     
मास बीते, वर्ष बीते, काल ने सज्जा सजायी ।    
स्वर्ण की तृष्णा कहाँ से जानकीमन में समायी ?
वह पली थी स्वर्ण में, त्यज स्वर्ण तेरे साथ आयी।    
स्वर्णमृग का रूप लेकर काल उसके पास आया,           
जल्पना-सा कथ्य यह मुझको नहीं है रास आया।       

राम, तेरे आगमन से भीति ऋषियों की हटी थी, 
वे सुरक्षित जी रहे थे, राक्षसी प्रभुता घटी थी। 
कौन शोषक, सब जियें सुख से, स्वतः स्वीकारता है ?
कौन दलितों, शोषितों को प्यार से पुचकारता है ?
राम, हस्तक्षेप तेरा डाकुओं को खल रहा था, 
रोष का पावक प्रबल उनके हृदय में जल रहा था ।   
  
जानकी का रूप भी था पास तेरे न्यास उनका,  
कामनाओं से ज्वलित था श्वास-प्रत्याश्वास उनका। 
सोचते थे, एक हीरा क्योँ पड़ा है भिक्षुकर में !
जंगलों की रौशनी को क्यों न ले आयें महल में !
शोषकों का अभिलषित क्यों शोषितों के पास होगा ? 
क्यों सबल भी शील या शालीनता का दास होगा ?  

युद्ध करना हिंस्र पशु शायद कभी स्वीकारते हैं,
स्तेय-कौशलयुक्त होकर भक्ष्य मृग को मारते हैं।         
एक दिन तुम और लक्ष्मण जंगलों में जा चुके थे, 
जानकी को आपदा के चिह्न भी बतला चुके थे।  
छिप खड़ा पौलस्त्य था हरने किसी विधि रुपनिधि को,  
चौर्य में ही शौर्य दिखला, ले उड़ा वह जानकी को। 

अह्नि के अवसान पर तुम औ लखन जब घर पधारे, 
देहली पर दिख रहे थे दस्युओं के कृत्य सारे। 
थी दिशाएँ चुप, अनिल रुक-रुक, झिझकते, बह रहे थे,    
फूल वेणी के धरा पर कीर्ण कुछ-कुछ कह रहे थे,
जानकी थी लुप्त, ऋषिगण मूक, केवल रो रहे थे, 
बेबशी के घाव ढलते अश्रुकण से धो रहे थे। 

एक ऋषि घायल पड़ा था मृत्यु से कुछ क्षण बचाकर, 
क्या हुआ, किसने किया, उसने कहा तुमको बुलाकर, 
और बोला, मृत्युमुख हूँ, दे वचन आदेश लोगे,  
प्राण को भी दांव पर रख, लो शपथ, प्रतिशोध लोगे,
त्राण सीता का करोगे, अब यही हो लक्ष्य तेरा, 
तुम प्रलय के ज्वार हो, अन्याय ही है भक्ष्य तेरा। 

राम, तुमने की प्रतिज्ञा, ऋषि मुमूर्षु वहाँ पड़े थे 
साथ, चारों ओर, लक्ष्मण और ऋषिगण भी खड़े थे       
था विकट क्षण जब करुण-स्मिति छोड़ अधरों को भगी थी,     
या फड़कती धमनियों के रक्त में जाकर मिली थी ।
तब तुम्हारी पौरुषेया शक्ति गर्जन कर रही थी
ख़ून में अंगार भरती प्रलयसर्जन कर रही थी । 

फिर किया आह्वान तुमने, ऋषि हज़ारों आ गए थे; 
देश के, भूगोल के, हर भेद को समझा गए थे।
युद्धनैतिक, राजनैतिक, कूटनैतिक दांव सारे, 
ऋषिगणों को ज्ञात थे, वे बन गए साधन तुम्हारे।
योजना भी बन गयी, कर्तव्य उसका अनुसरण था,  
वालि-मर्दन, मित्रता सुग्रीब की, पहला चरण था।             

दो युवक सैनिक-कला के शीर्ष पण्डित हो सकेँगे,  
अननुशासित भीड़ में भी धैर्य, साहस बो सकेंगे,  
एक अनुशासित चमू का रूप उसको दे सकेंगे, 
क्या कभी दशग्रीव से लोहा समर में ले सकेंगे ?          
ये बड़े थे प्रश्न, कोई भी न उत्तर जानता था 
गर्व में दशकंठ इसको बालहठ-सा मानता था । 

एक दिन सेना उदधि कर पार लंका आ गयी थी, 
शुष्क तृण के पुंज पर बन कर हुताशन छा गयी थी, 
थे खड़े हनुमान, उंचासों पवन को न्योत करके,     
थे खड़े सुग्रीब, अंगद सैन्य ओतप्रोत करके,
त्राण करने जानकी का शीघ्र ही दिन एक आया 
जब विजय थी हाथ तेरे, शत्रु का करके सफ़ाया । 

पीठ पर बैठा विभीषण स्तोत्र तेरे गा रहा था, 
राक्षसों को राम-पूजन की विधा समझा रहा था,      
जानकी, हो प्रेमविह्वल, वाटिका से आ चुकी थी,  
मोल अपने धैर्य का तुमको निरख कर पा चुकी थी, 
तब, सुना, तुम हो गए निरपेक्ष सीता से अचानक,  
बात बोले तौलकर, पर बात थी कैसी भयानक !

"मैथिली, यह युद्ध तेरे अर्थ मैं करता नहीं था, 
मैं तुम्हारे भाग्य या दुर्भाग्य से डरता नहीं था, 
एक नारी के लिए करना नहीं संगर मुझे था, 
विष-भरे लोकापवादों का भयानक डर मुझे था,   
युद्ध रघुकुल का बचाने मान मैं करने चला था,      
सिर उठा कर के जियें, मर जाएँ अथवा, फ़ैसला था। 
            
शील पर तेरे लगी है लांछना, सब क्या कहेंगे ?
सिर झुकाये राजकुल के लोग सब ताने सुनेंगे; 
राम सीता को लिए निर्लज्ज होकर जी रहा है, 
एक राक्षस के किये उच्छिष्ट जल को पी रहा है । 
इसलिए तुम मुक्त हो, जाओ जहाँ हो मन तुम्हारा 
तुम जियो, अथवा मरो, स्वीकार लो निर्णय हमारा।" 

राम, रघुकुल की कहानी, स्वल्प ही, पर जानता हूँ, 
मान से है न्याय गुरुतर धर्म, फिर भी, मानता हूँ ।
उस खुले अन्याय का उत्तर दिया था जानकी ने, 
जल मरे अविलम्ब, यह निर्णय लिया था जानकी ने । 
किन्तु हस्तक्षेप ऋषि-मुनि-देवताओं ने किया था,   
मैथिली को, हो विवश, स्वीकार तुमने कर लिया था ।      

लौट तुम आये अयोध्या, बन गए राजा प्रतापी,  
पुण्यरत जन थे सुखी, थे मिट गए दुर्दांत पापी,
सत्य है यदि बात, तो लोकापवादों से चतुर्दिक्
क्यों भरा था? जानकी को क्यों किये थे लोग धिक्-धिक् ?
क्यों मृषा लोकोपवादों से तुम्हारा खिन्न था मन,
जीतकर मन क्या असंभव था असत अपवाद-खंडन ?

राम, शंका, द्वेष, डर से यदि भरा जनमन रहेगा 
तो अटल इस मेदिनी पर पाप का शासन रहेगा।
जब तलक शंका हृदय पर है किये अधिकार अपना 
तब तलक संमृद्धि, निष्ठा, शांति होंगी मात्र सपना ।
साक्ष्य देवों का, अनल का भी, न उसको रोक पाया,     
वनगमन का दंड बन कर जानकी का शोक आया ।     
   
राम, तुमने प्रिय-जनों को दंड देना धर्म समझा, 
न्याय या अन्याय का निर्णय नहीं निज-कर्म समझा
मान रघुकुल का तुम्हारे शीष पर चढ़ बोलता था, 
मन तुम्हारा तुच्छतम आक्षेप से भी डोलता था।
कौन, मर्यादा किसे कहते, तुम्हें आकर सिखाता, 
धर्म के गूढ़ार्थ को था कौन जो तुमको बताता ?

न्याय की तुम मूर्ति थे, सो मूर्ति बन कर जी रहे थे, 
घोल कर अन्याय को मधुपर्क जैसा पी रहे थे ।
हो लखन, या जानकी, या भ्रूण उसकी कोख का हो, 
आह हो, या रो रहा अंतर किसी निर्दोष का हो,               
था डिगा सकता न तुमको, सत्य मर्यादापुरुष थे, 
वज्र था तेरा हृदय, तुम प्रस्तरों से भी परुष थे। 

राम, तेरे धर्म का था अर्थ केवल आत्मपीड़न,
था छिपा अवचेतना में दुख-भरा निज बाल-जीवन, 
सौत के अन्याय जननी पर बड़े होते रहे थे,   
तुम सहमकर एक कोने में खड़े होते रहे थे। 
आत्म में थे तुम स्वयं कर जानकी-लक्ष्मण समाहित, 
इसलिए उस ओर होता था स्वयं-पीड़न प्रवाहित। 
      
दंड सीता को मिला, वह भूमि में जाकर समायी, 
डूब सरयू में लखन ने प्राण छोड़े, शांति पायी। 
तोड़ करके धैर्य अपना, तुम बिलखकर रो चुके थे, 
राज्य से, या प्राण से भी, प्रेम प्रायः खो चुके थे, 
राज्य दे अधिकारियों को तुम नदी के पास आये, 
राह लक्ष्मण की पकड़ कर, शांत, सरयू में समाये। 

राम, यह आधी-अधूरी सी कथा मैंने कही है,
तुम अकेले जानते हो क्या ग़लत है क्या सही है, 
किन सुकोमल भावनाओं को दबा तुम जी रहे थे, 
और कितनी वेदना को बिन दिखाये पी रहे थे । 
तुम कुसुम-से थे सुकोमल, वज्रवत थी मूर्ति तेरी, 
बस इसी से आज तक अक्षुण्ण चलती कीर्ति तेरी । 

             
             
      

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3 टिप्‍पणियां:

  1. राम रमकर जी रहे हैं आपमे हम मे सभी में
    काल परिवर्तित किए है अर्थ और संदर्भ जिय मे
    घोर मर्यादा नहीं आदर्श पथ संबंध संपुट
    भ्रात भर्ता धर्म करता कीर्ति कारण कर्म हिय मे

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  2. राममय यदि होगया है मन कवि का तन कवि का
    क्योअन उनकी जीवनी पर चल पड़ेगी लेखनी तब
    सरल सुन्दर भाव से भर एक कविता बन पड़ेगी
    कौन जाने क्या सही है कौन जाने क्या गलत है
    क्यों करें इसका विवेचन, यदि मन ने माना राम सच है

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    1. जैन साहब, राम के दुख का ज़रा अनुमान करिये
      और उनके स्थान पर रख कर स्वयं को, ध्यान धरिये
      आप यदि हैं नर्मदिल तो आँसुओं से रो पड़ेंगे
      चाह करके भी नहीं फिर रात सारी सो सकेंगे
      क्या भले जो लोग हैं, वे वेदना सहते जिए हैं ?
      शांति और शुकून केवल पापियों के ही लिए हैं ?

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