सोमवार, 4 अगस्त 2014

बस्ती सुकून की बसाएगा आदमी

दानवीय या मानवीय, 
बढ़ गए धरती पर अत्याचार 
भीषण प्रलय आया , 
दिखता नहीं  था जलराशि का आर-पार,
सृष्टि की नाव फँसी जलधि के मँझधार |   
बन कर एक मछली
प्रभु ने लिया  प्रथम अवतार।

हममें से कुछ 
मछली खाते हैं डटकर,
और कुछ करते हैं 
उसकी  बू  से नफ़रत        
खाने में स्वाद और छूने में नफ़रत 
यही है  भले आदमी की फ़ितरत  

सोचा उन्होंने,
चलोकरते हैं  प्रयास फिर एक बार 
 गए लेकर कच्छप अवतार  
तब से  भला आदमी 
जितना रहता है पानी के अंदर 
उतना ही रहता है पानी के बाहर 
चित भी उसकी और पट भी उसका 
जीतेतो आपकाहारेतो खिसका  

प्रभु ज़िदिया गये 
वराह अवतार लेकर फ़िर  गये  
आदमी में अंतर नहीं आया |
किसी ने की नफ़रत,
किसी ने बड़े  चाव से खाया  

खाए जाने की अनुभूति से ऊबकर
गहरे चिंतन में प्रभु ने डूबकर
धारा  एक अनोखा रूपइस बार,
आधे में बबर शेरआधा मनुष्याकार।
तभी से बब्बन सिंह फाड़ रहे ग़रीबों की छाती,
या,  उस  बेबस मजदूरन की साड़ी 
जो करती  खेत में कामलेकर दिहाड़ी  

प्रभु फ़िर लौटे ले वामन अवतार   
तब से यहाँ  होती है  
धोख़े की जीत और दरियादिली की हार  

अगले अवतार में प्रभु आये बन परशुराम 
पंडितों को पकड़-पकड़ दे दी धरती तमाम। 
तभी से हर भला आदमी 
यूँ बैठा खाता है
अनाज़ किसी और से पैदा करवाता है 
सुबहोशाम बस नाक भर दबाता है
महरी से जूठे पत्तल उठवाकर,
या फिर रात में पैर दबवाकर  

प्रभु ने सोचा 
कि सत्ता में घुस कर 
सत्ता को बदलना है;
बन के श्रीराम  
त्रेता युग में निकलना है |    
लेकिन जब तलक 
अपनी कमज़ोरी को 
वरदान बतलाने की 
ज़िंदा रहेगी ललक,
कोई एक कैकयी 
तुम्हेँ भेज सकती है 
जंगल के उस पार  
लोकर लो सुधार !

अपनी खड़ाऊं तक घर छोड़ जाओ
काँटों-भरी राह पर ख़ुद तो चलो ही
दूसरों को भी चलाओ 
हम तेरे राज्य कोबेशक तुम्हारे हितखुद संभाल लेंगे 
पादुका पूजेंगेऔर कंधे पर अपने 
एक रामनामी तूश की बेशकीमती शाल  भी डाल लेंगे  

प्रभु ने सोचाअब ऐसे नहीं होगा 
एक महाभारत करवाना ज़रुरी है 
इसके बाद ही सबकुछ सही होगा 

बाँसुरी बजायी और  राधा को रिझाया 
मक्खन खा-खा कर महाभारत करवाया,
दुष्टों के चंगुल से अवाम को छुड़ाया  

तभी से भले लोग,
बाँसुरी बजाते हैं 
मालपुए खाते हैं 
राधा को रिझाते हैं 
भाइयों के बीच 
महाभारत करवाते हैं  

यह सब देख कर प्रभु हो गए तंग
दुनिया है तैर रही जैसे हो कटी पतंग 
उसकी पकड़ने इठलाती डोर
सुखसुकूननाते  रिश्ते तोड़
बन गए तथागत,
दलितों की ताक़त  

लेकिन यह दुनियाँ है 
उनसे भी अधिक समझदार 
इसका  जान सके 
ईश्वर  भी आर-पार  

बक़ौल बच्चन

बुद्ध का जैसा और जो भी हो उपदेश,
आज उनकी मूर्तियों के सर पर घुँघराले केश 
वे ड्राइंग रूम्स की शोभा बढ़ाते हैं 
भले लोग संघ की शरण में  जाते हैं 
वे तो राष्ट्रसंघ  को उँगलियों पर नचाते हैं  

भगवान ने कर ली तौबा यहाँ आने से 
आदमी  मानेगा मेरे समझाने से |
वे किसी और को तभी से हैं भेज रहे 
लेटे शेषशय्या पर सपने सहेज रहे |

आज  तो कल सुधर जायेगा आदमी
बस्ती सुकून की बसाएगा आदमी  

लेकिन आदमी !

आदमी बदले की भावना से ग्रस्त है 
जलते दिल से उठते धुएँ  से त्रस्त है।  

कैसा वह बाप है, जो  घर से निकाल दे
तिल जैसी ग़लती को ताड़-सा आकार दे,
अपने ही बाग़ का एक सेव खाया था 
कौन  बड़ी खता हुई, हीरा चुराया था?

आज आते बार-बार अपना गीत गाने को 
बेटा जो भटक चुका, उसको समझाने को,
शायद वो अपने ही किये पर पछताते हैं,
पर क़ुबूल करने से, बेशक़ सरमाते हैं  

आते रहें, जाते रहें, कौन मना करता है,
स्याह या सुफ़ेद हो, अब कौन यहाँ डरता है।              
   




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