गुरुवार, 28 अगस्त 2014

जब जब …

जब जब आसमान बादलों से घिर जाता है, 
बारिस होती है और सड़क तालाब बन जाती है, 
मुझे याद आता है वह जुमला, 
जिसके मानी है
कि इस देश के किसान मौसम के साथ जुआ खेलते है।  
मैं भूल जाता हूँ फ़र्क शहर और देहात में, 
शेयर-बाज़ार और लेबर-बाज़ार में,
सोचता हूँ, 
कि इस नल और युधिष्ठिर के देश में, 
किस तबके के लोग जुआ नहीं खेलते हैं!

जब जब मैं सड़क पर अकेला चलता हूँ, 
हर सौ डग पर पीछे मुड़कर देख लेता हूँ। 
डरता हूँ कि कब कौन कहाँ से आकर 
मुझे लूटने की मेहरबानी कर ले  
और मेरी जेब की मायूसी-भरी जाँच के बाद 
मेरे चेहरे पर पाँच तमाचे जड़ दे। 
किसी को देख नहीं रहा हूँ
जो गवाह बने और कहे थाने में 
कि इनके साथ सचमुच एक हादसा हुआ है।          

जब जब मैं ट्रेन में सफ़र करता हूँ  
रुकती है ट्रेन स्टेशन पर तो डरता हूँ 
कब और कितने लोग घुस आयेंगे बेटिकट 
और बैठ जाएँगे जमकर मेरी बर्थ पर। 
अल्लाह मालिक, कहाँ तक जायेंगे 
खेलते ताश, करते भद्दे मज़ाक, खाते मूंगफली,
और मुझे सलाह देते 
कि ऊपर की बर्थ पर चले जाइये
बैठिये, या सोइये, सुकून  से,
हम आपकी बर्थ को यहीं छोड़ जायेंगे,
घर न ले जायेंगे । 

जब जब में बाज़ार जाता हूँ, 
अपनी जेब खाली कर घर लौट आता हूँ। 
वे दिन गए जब कटती थी जेब,
या कोई उस्ताद रूहानी हलकी उँगलियों का जादू 
बटुए पर फेर जाता था।
अब मैं अपने हाथों ही गिनता हूँ नोट
और कर लेता हूँ ख़ुद अपना बटुआ साफ़।  
पिछले साठ वर्षों में हर मैदान में तरक्की हुई है। 
पाकेट मारने का हुनर भी पिछड़ा नहीं है 
इस तरक्की की दौड़ में। 

जब जब मैं टीवी देखता हूँ, 
दिखते हैं तेवर-भरे चेहरे, भंगिमा-भरे भाव,
गुमराह करते इश्तहार 
आगज़नी, क़त्ल और रेप की खबरें, 
भौंड़े मज़ाक, गबन, डाके, आतंकवाद
या, फिर, दिखते हैं,
किसी, देश के कर्णधार, महामहिम का मुँह
और उनकी पौच से उझकते उनके नौनिहाल 
मुझे अंदेशा अचरज होता है 
कि चैनल अचानक, कैसे, ख़ुद-ब-ख़ुद बदल गया,
विना सब्स्क्राइब किये एनिमल प्लैनेट कैसे लग गया!     
यह सब देखकर मुझे याद आता है 
कि ऑस्ट्रेलिया में कंगारू पाया जाता हैं। 
पर मेरा देश गैंडों का देश है,
आदमी की खाल में भेंड़ों का देश है, 
या भैंसों का देश है,
जहां खेतों में गेंहूँ नहीं उपजता,
चारा उपजता है, महामहिम भैँसोँ के लिए। 
                  
जब जब मैं पढ़ता हूँ अख़बार 
तो मोटे-मोटे हरुफ़ चिल्लाते हैं 
कि फ़लां ज़गह एक लड़की का हुआ बलात्कार।  
फिर मैं अपना चेहरा अख़बार से ढँक लेता हूँ 
और सोचता हूँ,
कि जहाँ अनगिनत शोहदे साठ वर्षों से 
माँ पर करते रहे हैं बलात्कार, 
वहाँ अगर बेटी की आबरू लुटी सरेआम 
तो क्या अचरज है!
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1 टिप्पणी:

  1. बेहतरीन अभिव्यक्ति ...
    ==================
    मैं स्वयं से पूछता हूँ
    तुम क्यों बन गए हो चोर
    तुम क्यों वही सब कर रहे हो
    जिसको चोरी की संज्ञा मे रखा जाता हो
    फिर अचानक बोध होता है
    ईमानदारों का अस्तित्व
    है तो चोरों के बल पर ही
    बलात्कारी, जुआरी,
    मात्र अर्थ की चाह मे लिप्त
    व्यापारी
    आखिर इन सबका अस्तित्व
    है तो सदाचारियों के कारण ही

    लगता है
    इन सबका सह-अस्तित्व ही
    प्रक्रति का नियम है
    और हम बेचारों की भांति
    अपना समय बिता रहे हैं
    इस सबकी चर्चा मे ...

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