बुधवार, 29 अप्रैल 2015

जीती रह पुत्तर

मैंने अपनी नन्हीं पोती से सवाल किया 
चार गुने दो कितने होते है ?
उसने कहा "जी" 
और  कॉपी पर लिखा g
मैंने उसका उत्तर सही किया और लिखा 8
वह बोली, दादा जी, 
कल आपने ही तो मना किया था 
जीरो को जीरो से डिवाइड नहीं करते। 

फिर मैंने पूछा 
अच्छा, यह तो बताओ 
कि चार प्लस दो 
और चार माइनस दो 
इन दोनों में 
कौन बड़ा होता हैं?
वह हँसी, फिर बोली,   
तीनों एक ही तो हैं,
एक के ही तीन नाम। 

मैं चकराया, और पूछा, सो कैसे?
उसने समझाया, कल आपने ही बताया,
चौबे जब छब्बे बनने जाता है,
आधी रात दूबे बन घर लौट आता हैं,
फिर भी, चौबे अपनी पोती के लिए
जैसे का तैसा, दादा रह जाता है। 
नाम बदलने से क्या अंतर पड़ता है ?
घर में मेरा  नाम बिटटू  है,
स्कूल में वैदेही है,
अब  बतलाओ, मैं एक हूँ कि दो ?

मैं हो गया निरुत्तर,
बगलें झाँकते हुए मैंने कहा,
जीती रह पुत्तर।         

शनिवार, 25 अप्रैल 2015

मुकाम

शहर  -  इमारतें-ही-इमारतें,
इमारतों पर इमारतें। 

उस इमारत की चारदीवारी इक्कों की है,
पान का इक्का, हुक्म का इक्का , चिड़ी का इक्का …     

और वह देखो,
उसकी चारदीवारी में  दिख रहे बादशाह 
और  दूसरी मंजिल पर बेगम-ही-बेगम। 

उसकी परली ओर 
नहले-ही-नहले,
सामने हटकर,
दहले-ही-दहले। 
नहलों से बढ़चढ़ कर 
दहलों का मकान। 

उनके पीछे हैं,
अट्ठे, पट्ठे, 
और सत्ते से दुड़ी तक। 

इस शहर को ग़ुरूर है
ताश के पत्तों से बने महलों का। 

यक़ीनन, यह नहीं जानता 
कि सबसे पुख्ता इमारत जमींदोज़ ताबूत की होती है,
जिसकी छत  पर तूफ़ान फ़िसल जाते हैं,
आसमान से उतर कर काली घटाएँ करती हैं आदाब अर्ज,             
आफ़ताब पेश आता है गुनगुने चाँद सा,
और सुबह की ताजी हवा आँगन बुहारती है। 

ओ मेरे ज़हीन दोस्त,
ले चल मुझे इन ताश के पत्तों से दूर,
उस मुकाम तक,
जो फूंक से न उड़ें,
झेल लें आँधी-तूफ़ान
और जलते जेठ की धूप।