शनिवार, 25 अप्रैल 2015

मुकाम

शहर  -  इमारतें-ही-इमारतें,
इमारतों पर इमारतें। 

उस इमारत की चारदीवारी इक्कों की है,
पान का इक्का, हुक्म का इक्का , चिड़ी का इक्का …     

और वह देखो,
उसकी चारदीवारी में  दिख रहे बादशाह 
और  दूसरी मंजिल पर बेगम-ही-बेगम। 

उसकी परली ओर 
नहले-ही-नहले,
सामने हटकर,
दहले-ही-दहले। 
नहलों से बढ़चढ़ कर 
दहलों का मकान। 

उनके पीछे हैं,
अट्ठे, पट्ठे, 
और सत्ते से दुड़ी तक। 

इस शहर को ग़ुरूर है
ताश के पत्तों से बने महलों का। 

यक़ीनन, यह नहीं जानता 
कि सबसे पुख्ता इमारत जमींदोज़ ताबूत की होती है,
जिसकी छत  पर तूफ़ान फ़िसल जाते हैं,
आसमान से उतर कर काली घटाएँ करती हैं आदाब अर्ज,             
आफ़ताब पेश आता है गुनगुने चाँद सा,
और सुबह की ताजी हवा आँगन बुहारती है। 

ओ मेरे ज़हीन दोस्त,
ले चल मुझे इन ताश के पत्तों से दूर,
उस मुकाम तक,
जो फूंक से न उड़ें,
झेल लें आँधी-तूफ़ान
और जलते जेठ की धूप। 

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