रविवार, 14 दिसंबर 2014

मत दो मुझे निर्वाण के उपदेश

क्या दिया मैंने उस गाँव को 
जिसकी हवा में मैंने पहली साँस ली थी
जिसकी ज़मीन गलीचे सी नरम थी
जिस पर चलते मेरे  घुटने न छिले थे
जहाँ मैंने बोलना सीखा तुतला-तुतलाकर!

क्या दिया मैंने उस जराजीर्ण स्कूल को
जहाँ मैंने सीखा ककहरा,
बीसी तक पहाड़े
ए से एपल और बी से बुक,
जो अब भी काम आते हैं!

क्या दिया मैंने उस कॉलिज को
जिसने दी मुफ्त में शिक्षा 
और पहला वजीफ़ा,
जिससे खरीदी किताबें अब भी मेरे पास हैं 
यादगार के तौर पर !

क्या दिया मैंने लौटाकर उस शिक्षक को
जिसने सैकड़ों घंटे मुझपर लगाये 
पढ़कर मूक  सूखे ओठों के हरुफ़ 
जिसने मुझे नाश्ते भी कराये
निःशुल्क, अनमोल, विना मोल!

क्या दिया मैंने लौटाकर उस भाषा को,
जिसकी कविताओं ने स्पंदन जगाये
जिसकी कहानियों ने मेरा चरित्र सिरजा,
जिसके मुहावरे गहराई तक उतर गए हैं,
करती मुझमें आत्मज्ञान का संचारण!      

हाँ, मैं फिर जनम लूँगा,
बार-बार, एक नहीं, सौ जनम लूँगा 
चुकाने ऋण जो मुझ पर है,
यह मेरा निजी मामला है,
बाबाजी, मत दो मुझे निर्वाण के उपदेश। 


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बुढ़िया

बच्चों की जूठन औ खुरचन की भात 
बुढ़िया की घर में बस इतनी औकात।  

गुदड़ी से तन ढककर कटती है रात 
छप्पर है रिसता जब आती बरसात। 

पछुआ है पूस की दिखाती एक खेल 
बुढ़िया की टुड्डी औ घुटनोँ का मेल। 

कुतिया जब करती पैताने आराम
सर्द हवा करती बुढ़िया को बदनाम। 

गाली के  सालन में आँसू का  झोल    
बुढ़िया की बिपदा की पोल रहा खोल। 

मरती न जीती है करती हैरान
बहू कहे, बुढ़िया की तोते में जान।     
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किंवदंती है कि डायन की जान शरीर में नहीं वरन और कहीं (जैसे तोते में) होती है ।           

शनिवार, 13 दिसंबर 2014

बुधुआ मज़दूर

बुधुआ का बाप मरा होकर बीमार 
बुधुआ के सर आया किरिया का भार। 

पंडित ने पकड़ा दी लम्बी फेहरिस्त 
बुधुआ बाजार चला लेकर के लिस्ट। 

साथ महाजन लेकर देने सहयोग
कर्ज मिटा सकता निर्धनता का रोग। 

किरिया संपन्न हुई तेरह दिन बाद
भोज जिमा लोगों ने ले-लेकर स्वाद। 

रुपये झर भागे ज्यों मुट्ठी से रेत  
दो हफ्ते बाद बिके बुधुआ के खेत। 

बँधकर रिवाज़ों से, होकर मजबूर   
ईंटों के भट्ठे पर बुधुआ मज़दूर। 


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किरिया = श्राद्ध के क्रिया-कर्म 

जिजीविषा

मैनें सूरज से पूछा,
कब तक चलोगे?
उत्तर मिला 
शाम तक
जो आने ही वाली है । 

मैंने चिड़िये से पूछा 
कब तक उडोगी?
उत्तर मिला,
कुछ देर और,
पास के पेंड पर मेरा बसेरा है। 

मैंने दीपक से पूछा 
कब तक बलोगे?
उत्तर मिला, 
सुबह तक,
या तब तक 
जब तक स्नेह सूखा नहीं। 

मैंने आग से पूछा 
कब तक जलोगी?
उत्तर मिला,
जब तक ईंधन चुक नहीं जाते। 

मैंने सांसों से पूछा 
कब तक यूँ ही आती-जाती रहोगी?
उत्तर मिला,
जब तक तुम मुझे बुलाते रहोगे,
सब्जबाग नित नये दिखाते रहोगे,
आती रहूँगी मैं धर नित नए वेष,
जनम पर जनम तुम लेते रहोगे,
हर जनम मेरे चहेते रहोगे। 


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शुक्रवार, 12 दिसंबर 2014

कोलाज़

बूचरखाने को जाती 
ट्रक पर लदी गायें;
कुछ खा रहीं सूखे पुआल 
और कुछ कर रहीं पागुर; 
भविष्य से बेखबर 
बीच सड़क पर । 

दिख रही है पीठ उस साये की 
जो अकेला जा रहा है 
सर्पिल सड़क पर 
मिलने अदृष्ट में;  
आगे क्षितिज छूती सड़क की लकीर 
पीछे सुनसान विगत कल की छाँह 
जो निकली थी अरण्य से 
पगडंडी बनकर। 

आतशी लपटों में लिपटी 
जल रही है कॉलिज की इमारत,
सामने खड़ी है भीड़ 
चीखते रहनुमाओं की; 
जला डालेंगे सबकुछ 
नहीं, तो, बात लो मान;
मांगें हमारी बेशक वाज़िब हैं।
बोलते हैं बैनर 
यह कॉलिज हमारा है
दीगरों का दाखला 
हमें हरगिज़ मंज़ूर नहीं। 

तीन सागरों से उठकर
सुनामियों ने हाथ मिलाये, 
ढँक लिया पूरे मुल्क का नक्शा;  
ऊपरी कोने पर 
गर्द-ओ-ग़ुबार है,
गर्दिश है, चीख है,
बचाओ-बचाओ की करुण पुकार है; 
तैर रहे आसमान पर 
काले बादल और गड़गड़ाते एरोप्लेन । 

दुकानें लगी हैं,
अनाज़ की, कपड़ों की,
दूध-से सुफ़ेद मर्मरी टाइल्स की,
बिन-पढ़े शिक्षा की,
बिन-किये प्रतीक्षा की,
मंत्र तंत्र, दीक्षा की,
प्रियकर समीक्षा की, 
दाय की, न्याय की, 
ढाने सितम और करने अन्याय की,
जोरू, जमीन, ज़र की,
सच्ची झूठी खबर की,
रात के चारों प्रहर की । 
एक बड़े बोर्ड पर 
साफ़-साफ़ लिखा है: 
"सब-कुछ बिकता है"।         

एक वृद्धा, 
सौ पर एक दुःशासन। 
सौ करोड़ क्लीवों की 
उमड़ती सभा में 
सरेआम चीरहरण। 
बलात्कार शीलहरण। 
चीत्कार। 
हे कृष्ण, हे कृष्ण
अनुगुंजित भूमण्डल।
निष्फल। 

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गुरुवार, 4 दिसंबर 2014

Homesick

December comes, I grow homesick
I wish I soar in the sky
Over the winds and beyond the clouds
In the blue I want to fly.

I want to see my homestead land
My fields I want to see
Yawning with the mellow paddy
And lustre of the glee.

I want to pluck some drops of dew
That shine on the cheeks of rose
I want to fondle the chirping birds
By being to them so close.

शनिवार, 27 सितंबर 2014

पगली का प्रेमगान

मेरी पलकें जो है मुँदती तो फ़ना होती है
आँख खुलती है तो फिर लौट के बसती दुनियाँ   
मेरे जेहन में न जानें क्यूँ ये आता है ख़याल 
अक़्स तेरा मेरे ख़्वाबों ने तराशा होगा। 
         
नाचते आसमाँ पै जो थे हज़ारों तारे,
पहन के झिलमिल सुर्ख-ओ-नीले लिबाश
गुम हुए ढँक के कहीं अपने-अपने चेहरे
मेरी पलकें जो मुँदी, रात उन्हें लील गयी। 
        
मैंने देखा कि मैं-तुम हम-बिस्तर हैं,
चूमते हो तुम मुझे आगोश में लिए हुए 
पागल हो गये हो तुम, या फिर मैं दीवानी,
अक़्स तेरा मेरे ख़्वाबों ने तराशा होगा। 
     
ढह रहीं टूट के ज़न्नत की दर-ओ-दीवारेँ, 
आग है सर्द हुई ख़ौफनाक दोज़ख़ की,
शैतान, फ़रिश्ते, मुझे छोड़ो, दफ़ा हो जाओ 
मुंदकर मेरी पलकों ने दुनियाँ को लील लिया। 

ऐसा लगता है, तुम लौट आये मेरे पास,
वादा निभाने में बड़ी देर कर दी तुमने,
मेरे हुश्न के साथ तेरी याद भी हुई धुँधली,
अक़्स तेरा मेरे ख़्वाबों ने तराशा होगा।  

काश, किया होता तूफ़ान-बगूले से इश्क़,
बहार आती है तो वे भी आ जाते हैं
मैंने मूँद लीं हैं भारी पलकें अपनी,
सारी दुनियाँ घुप अँधेरे में डूब गयी।          
अक़्स तेरा मेरे ख़्वाबों ने तराशा होगा।    


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सिल्विया प्लैथ (Sylvia Plath) की मैड गर्ल' लव सॉन्ग (Mad Girl's Love Song) का भावानुवाद;
देबदास छोटराई द्वारा उड़िया में भी अनुवादित  


रोटी

रोटी, गरम गरम,
गोल-गोल, फूली हुई। 

जब-जब मैं तुम्हारी तरफ देखता हूँ
मेरे जेहन में आ जाते हैं सिलसिलेवार अक़्स,
गेंहू का पिसकर आटा बनना,
आटे का गुंधना, टुकड़ों में बँटना,
बेलन से बिलना, तवे पर चढ़ना,
हर मिनट बाद, सिंक, पहलू बदलना,
फिर तवे से उतर बंद होना देग में,
ऊमस भरे देग में। 

ओ रोटी,
मैं तेरे पीछे भागते हुए,
कुछ तेरे जैसा ही हो गया हूँ।   
मुझे अद्वैत-बोध होता है;
मैं तुम हूँ, या तुम मैं हो
हमारा द्वैत-भाव माया है, भ्रम है। 

तेरे लिए भागकर,
हाँ, तेरे लिए भागकर,
मैंने छोड़ा
माँ का आँचल,
कटोरा दूध-भरा,
बचपन के दोस्त 
पिछवाड़े की अमराई,
पीपल की छाँह,
पलाशों के जंगल,
नदिया की रेत,
और भी बहुत कुछ। 

यान्ति देवव्रताः देवान,
. . .
यान्ति मद्याजिनोपि माम्। 

ओ रोटी,
तुमने बड़ी अच्छी की गीता की व्याख्या।
या कि तुम वही हो 
जिसने दिखाया था विराट रूप,
या जिसकी अनुभूति बोल उठी थी
अन्नमेव ब्रह्म। 
तुमने मुझे कराया अनुभूत
अहमन्नम् अहमन्नम् अहमन्नम्।   
       

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कुँवरि का भाग्य

बचपन में सुनी नानी से यह कहानी थी
बहुत दिन पहले, 
एक राजा था, व रानी थी। 

रानी के बेटी हुई, नाम रखा देवयानी,
कुछ समय बाद देवयानी हुई सयानी। 

राजा राजकाज में उलझे रहते थे
बेटी के व्याह की बात न करते थे। 

अनव्याही बेटी सौ मन भारी होती है      
कौन माँ यह भार लिए चैन से सोती है। 

आखिर रानी ने हज्जाम से की बात 
ढूंढो र कोई, बिटिया के हों पीले हाथ। 

नाई ने धोबी से तब सोचा लेनी सलाह,
धोबी ने 'कमीटी में तीन मेंबर हों' की चाह। 

भिस्ती की यारी उस दिन काम आ गयी 
जब उसकी राय मित्रमंडली को भा गयी। 

रच गया स्वयम्बर, तीनोँ के पुत्र आ गए,
बन राजकुंवर सारी सभा पर छा गये। 

राजा ने हुकुम दिया माला पहनाने को       
बेटी जिसे चाहो, चुनो, दूल्हा बनाने को। 

कुँवरि के भाग्य में धोबी का योग था 
उसी की तरफ माला गयी, यही संयोग था।   

बज उठी शहनाई, चिंता मिटी रानी की,  
दौड़-दौड़ धोबन ने बहू की अगवानी की।    

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मंगलवार, 23 सितंबर 2014

दाम्यत दत्त दयध्वम्

                (1)

असुरों, मनुष्यों, देवताओं ने 
की प्रजापति की बहुत-बहुत मिन्नत।
पूछा, बताएँ, क्या है हमारा श्रेय, 
कैसे हम होंगे सफल, सुखी, उन्नत?
          
कहा प्रजापति ने, कल सुबह आना,
पर अपना एक एक नेता चुन लाना,
हर दल के नेता को एकल प्रकोष्ठ में,
मैंने सोचा है वीजमन्त्र बतलाना। 

आ गए अगले दिन सारे के सारे,
प्रजापति भी ठीक समय पर पधारे। 
देवों के नेता को अंदर बुलाया 
मंत्र दे 'द' का, पूछा, क्या समझ आया?

बोला देवनेता, यह मन्त्र तो महान है,
अपनी इन्द्रियाँ हैं चपल, हमें यह भान है।                      
दमन वासनाओं का, दमन भावनाओं का
दमन इन्द्रियों का, मंत्रार्थ यह प्रमाण है। 

प्रजापति बोले, गच्छ, दाम्यत, दाम्यत
मनोविकाराणि, न भोगानि काम्यत। 

तब नरनेता घुसा प्रकोष्ठ के अंदर
पूछा प्रजापति ने, 'द' का मंत्र देकर,
बोलो मानव, तुम्हें क्या समझ आया?
'दत्त', 'करो दान', अर्थ नर ने बतलाया। 

हाँ, संग्रह, अधिकार, वस्तुमोह, संचय, 
इन्ही प्रवृत्तियों से है मानव पतन का भय,
अतः, बोले प्रजापति, दीनेभ्यो दीयताम् 
न संग्रहणेन, वरं दानेन प्रीयताम्। 

फिर प्रजापति ने असुरनेता को बुलाया
तेरा मंत्र 'द' है, कहो क्या समझ आया?
बोला असुर, 'दया' ही इस मंत्र का अर्थ है। 
दयाभाव में ही असुरजाति का उत्कर्ष है। 

बोले प्रजापति, गच्छ, सततं ‘दयध्वम्’ 
सर्वजीवेभ्यो अक्रूरताम् कुर्वध्वम्। 

          (2) 

सारी यह बात छपी, समाचार बन गयी
बात मुझ 'इतर' की सीठी-सी छन गयी।
देव, असुर, मनुज, सभी चर्चा के विषय थे,
इडियट से इलियट तक उपनिषदमय थे। 

मैं भी गया अंदर था 'द' का मंत्र पाने को 
दस प्रतिशत कोटे पर अपना दाय लाने को। 
पूछा मुझको भी था 'द' का अर्थ क्या होगा?
बोलो आरण्यक, तेरे लिए वह भला होगा। 

मैंने कहा था, 'द' का अर्थ दारू है,
फ़र्क नहीं पड़ता, इंगलिश या बाज़ारू है। 
प्रजापति बोले थे, भूलो 'दाम्यत, दत्त, दयध्वम्'
जाओ घर, प्रतिदिन पियध्वम् पियध्वम् । 

सभा हो, सिलेक्शन हो, चाहे सेमिनार हो,
सारे निर्णय का एक बोतल पर भार हो। 
दारू पर निछावर आरण्यक का तंत्र हो।  
'पियध्वम् पियध्वम्' तुम्हारा वीजमंत्र हो। 
   
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इतर = जो सुर, असुर, मानव से अन्य है; देवेतर, असुरेतर एवं मनुष्येतर