मंगलवार, 28 सितंबर 2021

श्रद्धा सबूरी

उनके हाथों में दे देना 

एक टुनटुनी 

कहना, बेटे, गाओ आरती 

यही भक्ति है, यही भारती 

यही तुम्हारा संविधान है 

जपो, जपो, भारत महान है 

मजहब तेरा वोटदान है 

पितृपक्ष में पिंडदान है 

किसका कौन चुनाव चिह्न है 

यही जानना महाज्ञान है 

नकल करो डिग्रियां लूटने 

यही तुम्हारा इम्तहान है 

बनो विश्वगुरु नाम कमाओ 

यही योग्यता, यही शान है

ले बेटे, जब भूख लगी हो 

बजा-बजाकर यही झुनझुना 

पानी पीना, धैर्य न खोना 

भूखा मरना देशप्रेम है 

यही आमरण अनशन तेरा 

तेरी श्रद्धा का प्रमाण है।

गुरुवार, 23 सितंबर 2021

दूरदृष्टि

मैं अपनी पीड़ा को 

आंसू बन बहने नहीं कहता 

नहीं करना चाहता हूं उन्हें अपने हृदय से दूर 

पर वे बेटे-बेटियों की तरह दूर होना चाहते हैं मुझसे 

नौकरी के लिए, शादी के लिए, अपने घर बसाने के लिए।

 मेरी आंखें सूनी हो जाती हैं तकती हुई राहें क्षितिज में, 

और लोग कहते हैं कि बूढ़ों को दूरदृष्टि होती है। 

हां, मैं सहमत हूं, आंखें पिरोये दूर तक क्षितिज में 

तकते हुए उनकी वापसी की राह।

शुक्रवार, 10 सितंबर 2021

अर्धसत्य

मध्यरात्रि में मेरी नींद टूट गयी
किसी उल्लू के चीखने की-सी आवाज से
तो देखा कि एक नरकंकाल दरवाजे की तरफ से
मेरे बिस्तर की ओर आ रहा है।

अचरज भी हुआ, और डर भी लगा
हालांकि मैं नास्तिक आदमी हूं
भूत और भगवान को कल्पना कहता हूं
लेकिन कहां से घुस आया यह साला कंकाल
कमरे का दरवाजा तो यकीनन बंद था।

मुझे सहमा हुआ देखकर 
खिटखिटा कर हंसा कंकाल
बोला, निकल गयी हवा?
बड़े इंटेलेक्चुअल बनते हो
हमारे अस्तित्व पर हंसते हो।

कांपती देह और मिमियाती जुबान से
मैंने पूछा, सच-सच बताओ, कौन हो तुम?
बोला कंकाल, मैं सच ही कहूंगा
मैं स्वयं सत्य हूं, 
मैं विवश हूं, झूठ बोल ही नहीं सकता।

मैंने कहा, सो तो ठीक है
लेकिन तुम इतने डरावने, फटेहाल, भूत-से क्यों हो?
अपनी हालत ऐसी क्यों बना रखी है,
क्यों आये हो इस अर्धरात्रि में मेरे पास,
क्या करने, क्या कहने?

बोला कंकाल, इस पूरे शहर में
तुम अकेले नास्तिक हो
तुम्हें छोड़कर सारे लोग आस्तिक हैं
वे भगवान को मानते हैं, शास्त्रों में आस्था है उनकी
वे नहीं मानेंगे मेरी बात, झूठा कहकर हलतार देंगे।

मैं प्रकृतिस्थ हुआ, जान में जान आई
मैंने जरा प्रगल्भ होकर कहा कंकाल से
कि चलो, अपनी बात कहो
सुन तो लूं कि तुम क्या कहते हो
नास्तिक हूं, यकीन कर लेने का वचन नहीं दूंगा।

बोला कंकाल, मैं आखिर जीत ही गया
सत्यमेव जयते, सत्यमेव जयते, सत्यमेव जयते।
मैंने झुंझलाकर कहा, कौन सी नयी बात है यह!
यह तो सभी जानते हैं, सभी मानते हैं,
यही कहने आ गये तुम, आधी रात में?

कंकाल ठिठियाया, बोला, जानते हों?
सत्यमेव जयते अर्धसत्य है।
मैंने पूछा, तो पूर्णसत्य क्या है?
कैसी-कैसी बातें कहते हो!
चलो, बतलाओ, पूर्णसत्य क्या है?

बोला कंकाल, सुनो, मुझे झूठ ने फंसाया मुकदमे में
ऊपर से नीचे तक पैसा खिलाया
जमीन बिकवायी, जेल भिजवाया
मेरी पत्नी ने आबरू बचाते हुए जान दे दी
मेरा बच्चा बेसहारा मर गया।

अंत में मुझे न्यायालय ने पाया निर्दोष
घर लौटा तो जीवन निरर्थक लगा
मैंने कर ली आत्महत्या, मैं अब प्रेत हूं
सत्य जीता जरूर, मैं गवाह हूं
लेकिन भैया, हार किसे कहते हैं?






मंगलवार, 27 जुलाई 2021

अवशिष्ट

तेरी हर चीज ठिकाने लग गई 

चूड़ियां

साड़ियां 

चादरें 

गहने 

पैसे 

घर 

अचार। 

मैं अकेला बचा हूं। 

इसे न बंटने दूंगा 

तेरा रहा हूं 

तेरा रहूंगा।

मंगलवार, 6 जुलाई 2021

ओड टु जस्टीसिया

अरे, ओ न्याय की देवी

तू अगर अंधी है

तो पट्टी क्यों बांध रखी है

आंखों पर?

पक्की जाहिल हो क्या?

या कि तुम्हारे मूर्तिकार

बछिया के ताऊ हैं?

पट्टी उतार कर फेंको

देखो, शायद दिख जाए कुछ।


अगर तुम सचमुच अंधी हो

तो तेरी तराजू के पलड़े

किस तरफ झुके हैं

यह कैसे लौकेगा तुम्हें?

कैसे दिखेगा,

कि पलड़े पर

एक तरफ अत्याचार

और दूसरी तरफ

नोट की गड्डियां हैं

या, एक तरफ रेप है

और दूसरी तरफ

रुसूख है?


अरे, ओ फूहड़ देवी,

गांधारी की ऐक्टिंग मत कर

कूड़मगज! देख, सुन और समझ,

दुर्योधन पर लगाम लगा, धृतराष्ट्र का बैंड बजा

शकुनि को चलता कर

भारत बचा, महाभारत से बच।


यह बेवकूफी की इंतहा है

छोड़ यह नाटक।

अगर तेरा दिमाग सुन्न हो गया है तो

किसी अंध-वधिरालय में जाकर जम जा

रोटी के लाले नहीं पड़ेंगे

बहुत सारी सरकारी स्कीम्स  हैं

विकलांगों के लिए।

सरकार तुम्हें मरने नहीं देगी।

शुक्रवार, 18 जून 2021

सब्र के बांध

सब्र के बांध

मत टूटो

नहीं तो मैं डूब जाऊंगा

आंसुओं के सैलाब में।

बारिश नाम नहीं लेती

थमने का

बदनसीबी की घटाओं ने

घेर रखा है मेरा नीला आसमान।

दुनियां भर की नफ़रत

बद्दुआओं की भाप

हर दिल की जलन

हिकारत का धुआं

मामूनियत की तलाश

चट्टानों पर ले आयी

बिल्कुल  तन्हा हूं

थामे सांसों की डोर।

तुम टूटोगे

तो टूटेगी डोर भी

फिर कहना नहीं

कि मरहूम अच्छा इंसान था।

शुक्रवार, 4 जून 2021

तर्पण

 हिमशिला पिघलकर अश्रु बनी कविता में वर्णन करता हूं

मेरा तर्पण तुम कर न सके, में तेरा तर्पण करता हूं।

अब गंधमात्र प्रिय तुम्हें हुआ, कर में क्या है यह मत देखो

होकर देवों के सहचर तुम, नर में क्या है यह मत देखो।

तुम हुए निवासी सुरपुर के, धरती पर क्या है मत देखो

ओ अंतर्यामी, तुम मेरे सीने में दिल आहत  देखो।

तेरी मां तेरी नगरी में अबतक तो पहुंच गई होगी

बेकल थी तेरी यादों में अब तेरे पास खड़ी होगी।

उसके आंचल की छाया में संतोष तुम्हें कितना होगा

मैं जा न सका अब तक, सोचो, कितना अफसोस मुझे होगा।

निर्मम होकर भागे का मैं स्नेहिल संबोधन करता हूं

मैं एक अभागा पिता, पुत्र! में तेरा तर्पण करता हूं।













प्रान्तर

एक प्रान्तर का मुसाफिर पूछ किसको राह जाने 

आत्ममोहित पेड़-पौधे कब लगे मंजिल दिखाने।

चांद अपनी तारिकाओं में स्वयं उलझा हुआ है 

रात रूठी है, न जानें क्या  कहां किसने कहा है।

अश्रुकण क्यों ओस बनकर कपोलों पर छा गये हैं

क्यों निशा के  लट उलझकर बादलों-से आ गये हैं।

क्लांत क्यों दिखते अनोकह क्यों हवाएं थम गई हैं

ध्वान्त यों विश्रांत क्यों है,  क्यों दिशाएं जम गई हैं।

कौन है जो मूक बैठा यों नियति की बात माने

स्तब्ध प्रान्तर का मुसाफ़िर पूछ किसको राह जाने ।

गुरुवार, 3 जून 2021

चलो हो गई खत्म कहानी

 इस तट घर में मैं रहता था

उस तक घर में वह रहती थी

बीच भरी गंगा बहती थी।


एक दिन मैंने उसको देखा

उस दिन उसने मुझको देखा

चारों आंखें कुछ कहती थी।


उसने कहा इधर आ जाओ

मैंने कहा इधर आ जाओ

उसने कहा, पहल तेरी हो।


फिर मैं उसको घर ले आया

उसको कितनी सुंदर पाया

जैसे हो मरुथल में छाया।


फिर ऊसर में बाग लगाया

फूल खिले, मलयानिल आया

सबने मिलकर गाना गाया।


एक दिन ऐसा तूफां आया

कौन कहां किस ओर फिंकाया

शव-ही-शव सड़कों पर पाया।


उड़ी गगन में बन बेगानी

बची याद ही एक निशानी

चलो, हो गई खत्म कहानी।

मंगलवार, 1 जून 2021

हार गया मैं

 मैंने कहा - चला जाऊंगा

तुमने कहा - चले जाना,

पर खुलने दो यह तालाबंदी।


अभी निकलना सही न होगा

सब्र करो, मैं क्यों रोकूंगी?

समझ बूझ कर मगर निकलना।


चले गये तुम विन बतलाये

परोपदेशे पांडित्यं की 

बात सही है, मुझे बताकर।


तुम जीते, मैं हार गया हूं,

पोथी पढ़कर ज्ञान न होता

पोंगा पंडित हार गया है।

मैंने देखा

 नयी बन गयी बात पुरानी, मैंने देखा

बाढ़ बना दरिया का पानी, मैंने देखा

अपनी को बनते बेगानी, मैंने देखा

एक हकीकत बनी कहानी, मैंने देखा

हर पतंग को नभ में कटते मैंने देखा

हर प्यारे फुग्गे को फटते मैंने देखा।

अलविदा ओ परी

 पंख लगाकर समय उड़ गया 

वह तो है  कल की ही बात।

अग्निदेव को साखी रख कर

कसमें ली थीं हमने सात।


अग्निदेव  को सौंप तुम्हें मैं

लौट रहा अब खाली हाथ।

पंख लगा कर उड़ी गगन में

तुम चंचल परियों के साध।

वह मिला था

मैं भी ढूंढता था

अपने खोये भारत को

गली-गली, डगर-डगर

मन-ही-मन।


एक दिन उसे देखा

रेलवे प्लैटफॉर्म के पास

चीथड़ों में लिपटा

घूरे पर फिंके पत्तलों से

बीनकर कुछ खाता।


मैंने सोचा

क्या हालत हो गई

उस भले हाकिम की

जिसने न्याय करके

लिया था पंगा

जबर्दस्त शासन से।


मेरी गाड़ी आ गयी तब तक

मुझे ऑफिस पहुंचना था

दोपहर तक।

शनिवार, 22 मई 2021

क्यों न जल्द मरते

 बेटी को पढ़ाया

ब्याह उसका कराया

बेटी गयी ससुराल

समधी जी मालामाल।


बेटे को पढ़ाया

बहुत पैसा लुटाया

उसने घर अपना

किसी शहर में बसाया।


गांव में अकेले

हम पूजा पाठ करते

चाहत बस एक बची

क्यों न जल्द मरते!

पिशाचलोक

 मैं सोचता हूं कि भारत

ऋषियों का नहीं

पिशाचों का देश है

नहीं तो लाशों के कफ़न चुराकर

लोग व्यापार नहीं करते

और न ही सेंकते रोटियां

चिंताओं की आग पर।


कह दो, यार

मैं ग़लत सोचता हूं

तुम्हारा कहना झट मान लूंगा

आत्मप्रवंचना की खातिर।

रुदन

 मैं रोना नहीं चाहता

क्योंकि मैं एक धीर गंभीर पुरुष हूं

रोना तो कायरों या स्त्रियों की 

पुख्ता पहचान है।


लेकिन ये बेवकूफ आंखें

भर ही आती हैं

पलकें नहीं संभाल पाती हैं

आंसुओं का भार।


युंग कहते थे

कि मर्द के अचेतन में

एक अनिमा रहती है

एक प्रबल नारी

जो चेतन पर कभी-कभार

पड़ती है भारी।

जिंदगी

 मेरा दर्द कौन सुनेगा?

मेरी चीख कौन समझेगा?

मेरी चारों ओर लाशें ही लाशें हैं

या लाशों पर कपसते लोग

या लाशों पर बोली लगाते लोग

या लाशों से पैसे कमाते लोग

चिल्लाते लोग, बिलबिलाते लोग

इस कोलाहल में

कौन सुनेगा मेरी कराह?


मुझे कभी का मर जाना चाहिए था

कर लेनी चाहिए थी आत्महत्या

लेकिन मैं जिन्दा हूं

क्योंकि बेशर्म हूं

गंदी नाली का घिनाया कीड़ा हूं।

जानते हैं आप?

कीड़े नालियों में

बहुत दिन जीते हैं

मैं नहीं जानता

कि किसी कीड़े ने कर ली खुदकुशी

अपनी जिंदगी से ऊब कर

और यह भी नहीं जानता

कि कीड़े भारत के

नागरिक होते या नहीं होते।


कीड़े संविधान नहीं पढ़ते

वह तो आदमी ने आदमी के लिए रचा है

सुना है, उसमें 

नागरिकों के मौलिक अधिकारों पर

लंबा लेक्चर है

पता नहीं, कीड़ों के मौलिक अधिकारों पर

क्या कहता है संविधान।

गुरुवार, 20 मई 2021

जाति-परिचय‌

 बकरे  मिमियाते है

शेर दहाड़ते है

कुत्ते भूंकते है

गधे रेंकते हैं।


सांप फुंफकारते हैं

मेंढ़क टर्राते हैं

गवैये गाते हैं

मूरख चिल्लाते हैं।


फेसबुक पर सभी

अपनी-अपनी जात बता जाते हैं।

डाइएस्पर॔ फॉरइवर

पुरखे हमारे 

जन्मे और मरे भी वहीं

वह जमीन हमें ईश्वर ने दी थी

कुलदेवता ने

लेकर सौगंध

कि हम उसे आबाद रखेंगे

पितरों ने दी थी हमें मातृभूमि।


चिड़ियां भी चिपकी नहीं रहतीं

अपने घोंसलों से

भटकती हैं कहां नहीं

खाने की खोज में

लेकिन लौट आती हैं

शाम तक बसेरे में

हां, चिड़ियां भी।


हम नहीं घर लौटे

उस जादू की नगरी से

जहां परदेशी मेंढ़े बन जाते हैं

जादू असर करता है

पेट के रास्ते से दिलो-दिमाग पर

हमने कहा उसे अपना नया घर

कभी नहीं लौट पाए अपने घर।


हमें मिला पुरखों का अभिशाप

मा प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः

हां, वहीं, या फिर और कहीं,

भटक और कमा

वहीं सबकुछ गंवा

गज-भर ज़मीं भी न मिले 

तुम्हें मातृभूमि में

भटकती रहे अंतिम राख

अनचीन्ही हवाओं में

ढूंढती मुकाम।

मंगलवार, 18 मई 2021

तुम मेरे सपनों में आए

तुम मेरे सपनों में आए

लेकिन वह सपना लंबा था

टूट गया कुछ यादें देकर।


कल फिर तुम सपनों में आए

अपनी मैं कुछ बता रहा था

पर तुम को शायद जल्दी थी।


सोने जगने का क्रम शायद

उस मुहूर्त तक चला करेगा

जब तक सांसें रुकी नहीं हैं।


जब सो जाऊं चिरनिद्रा में

स्वप्निल आंखों में आ जाना

तब जाने की बात न करना।


ओ मेरे सपनों के साथी

मेरे ये सपने अपने हैं

ये तेरे मेरे सपने हैं।

सोमवार, 17 मई 2021

सुनो और जानो

सुनो और जानो

कि मैं भी तुम्हारी तरह

हाड़-मांस का बना सचेतन पुतला हूं

मुझे भी चाहत थी

कि गुलाबों की बगिया में बच्चों के साथ खेलूं।

सुनो और जानो

कि तुम्हारी खुशहाली के लिए 

मैंने मन्नतें मांगी

परिस्थिति देवी को खुश करने को

कितने बलिदान दिये

अपने सपनों के, अरमानों के।

अपने आंसुओं की हर बूंद को

आशा और कामनाओं की सीप में संजोया

कि वे मोती बनकर तेरे काम आयें।

लेकिन ये सब

बीती बातें हैं

छोड़ो, कुछ और कहो,

आये हो मिलने

बहुत दिनों पर।   

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2021

सरस्वती पूजा

 सरस्वती पूजा

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माँ सरस्वती, विद्यादायिनि,

किसी  तरह डिग्री दिलवा दे

पर पढ़ने से साफ बचा ले

हर वसंतपंचमी दिवस पर

पूजन अर्चन किया  करूंगा 

डीजे के उद्दाम लयों पर

बेसुध नर्तन किया करूंगा 

मूर्ति विसर्जन करके तेरी 

जी भर दारू पिया करूंगा ।

कर दे थोड़ी कृपा, शारदे 

किसी तरह डिग्री दिलवा दे

आजीवन गुणगान करूंगा ।