बुधवार, 30 जुलाई 2014

मृत्युदेव आने वाले हैं


मेरा इतना भाग्य, धरा पर 
नभ ने आने को सोचा है !
मुक्त करा कारा से  मुझको 
लेकर जाने को सोचा है !

इतनी कृपा ! कहाँ थे अब तक !   
नाहक़ इतनी देर लगायी !
लगता है, आवाज़ हमारी  
उन  तक, पहले, पहुँच पायी !  

देव दयामय की आगवनी 
मैं दरिद्र क्या कर पाऊँगा ?
मैं मिट्टी का, वे तेजोमय 
कैसा अर्चन कर पाऊँगा ?

क्या नैवेद्य चढ़ाऊँगा मैं ?
मैं तो एक अकिंचन नर हूँ !
मेरा सब कुछ मिटटी का है 
मैं निर्धन, निरीह,  कातर हूँ !   

हाँ, अब आया याद, हमारा  
कुछ भी नहीं प्राण सा निर्मल 
क्यों इसे नैवेद्य चढ़ाऊँ ?
यही बने अर्चन का सम्बल
  
आओ, प्रभु, मैं विगतमोह हूँ 
तेरी पूजा कर पाऊँगा  
तेरे चरणोँ में छोटी-सी 
भेंट प्राण की  रख पाऊँगा 

अब मैं खुश हूँ, अभिनन्दन है !
सारे दुख जाने वाले हैं  

मृत्युदेव आने वाले हैं       
  
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रबीन्द्रनाथ ठाकुर की एक कविता से अनुप्राणित 


मंगलवार, 29 जुलाई 2014

बोल, तेरी उँगलियाँ पकड़े कहाँ तक मैं चलूँगा ?


बोल, तेरी उँगलियाँ पकड़े कहाँ तक मैं चलूँगा ?

देख दूर अतीत में, गन्तव्य जब कोई नहीं था
राह जब कोई नहीं थी, साथ जब कोई नहीँ था,
झाड़ियों की ओट से तुम गए बन कर सहारा,
और बोले, सोच मत, तेरे लिए तो मैं यहीं था,
साथ मिलकर ढूँढ लेंगे किस तरफ मंज़िल हमारी,              
रात जब आया करेगी  दीप बनकर मैं बलूँगा  

रात आयी, हाँ, दिया बनकर किया तुमने उजाला
पाँव जब फिसले, बढ़ाकर हाथ, हाँ, तुमने सँभाला,
थक गया जब, फेर सर पर हाथ, हाँ, तुमने सुलाया,
जब उषा आयी, पुकारा प्यार से, मुझको जगाया,
फिर चले हम, क्या पता था, मैं  जिसे मंज़िल समझता 
मात्र एक सराब है, जिसको नहीं मैं छू सकूंगा  

है नहीं मंज़िल अगर, तो पथ सभी हैं एक जैसे,                       
भटकना, जाना, सफ़र करना, सभी हैं एक जैसे
और, रुकना, याकि फिर मुड़कर कहीं से लौट चलना,
लौट चलना भी कहाँ ? अब चाहता कुछ भी कहना,  
हम कहाँ तक चुके हैं पूछ कर भी क्या करूँगा ?  
बोल, तेरी उँगलियाँ पकड़े कहाँ तक मैं चलूँगा ?            

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