मंगलवार, 29 जुलाई 2014

अंतर्व्यथा


मैं एक पर-टूटा पाँखी हूँ
गिरा हुआ दरिया की लहरों में  

किश्ती जो पास से निकलती  है,
नाविक जो पार्श्व  से गुज़रता  है,
"लहरो से जूझो" कह जाता है  

जितने ही दम-खम  से 
डैनों को तौलता हूँ ऊपर मैं,
उतने ही ज़ोर से डूब खा जाता हूँ ;
मैं हूँ 'हर क्रिया की समान और प्रतिकूल प्रतिक्रिया' का शिकार 
बाकी पाँखी तो हैं  चाहते उड़ना,
और झट उड़ जाते हैं  

जिधर ये लहरें ले जाती हैं,
उधर है वारिधि अनंत पड़ा। 
कभी थे  दरिया  और दो पाट,
अब हर एक पाट दरिया बन गया है;
हर दरिया दो दरियों के  पाट लिए बैठा है। 
फिर भी लोग कहते हैं कि 
बचना हो, तो रुख करो किनारे की  

इंसान मरता है तो मातम मनाते हैं 
क्योंकि वह मरता है वहां 
जहाँ उसके ही जैसे बहुत-से इंसान हैं  
मैं मरूँगा किसी बीहड़ में, खाड़ी में,
ऊपर अनंत गगन, नीचे निःसीम सिंधु  

दूर,   बहुत दूर,   
किसी छोटी-सी झाड़ी में 
हर आहट-हरक़त पर 
चीं-चीं कर मुँह खोले            
कुछ नन्हें बच्चे 
एक आस लिए बैठे हैं        

मैं अपनी मौत पर आँसू बहाऊँगा,
खुद  अपनी मौत पर मातम मनाऊँगा,
क्योंकि छोड़ जाऊँगा बच्चों को वहाँ 
जहाँ बिल्ली और लोमड़ी 
ताक लगा  बैठी हैं 
मौसी और नानी के चेहरों में  

मैं एक पर-टूटा पाँखी हूँ,
गिरा  हुआ दरिया की लहरों में  


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