शुक्रवार, 18 जून 2021

सब्र के बांध

सब्र के बांध

मत टूटो

नहीं तो मैं डूब जाऊंगा

आंसुओं के सैलाब में।

बारिश नाम नहीं लेती

थमने का

बदनसीबी की घटाओं ने

घेर रखा है मेरा नीला आसमान।

दुनियां भर की नफ़रत

बद्दुआओं की भाप

हर दिल की जलन

हिकारत का धुआं

मामूनियत की तलाश

चट्टानों पर ले आयी

बिल्कुल  तन्हा हूं

थामे सांसों की डोर।

तुम टूटोगे

तो टूटेगी डोर भी

फिर कहना नहीं

कि मरहूम अच्छा इंसान था।

शुक्रवार, 4 जून 2021

तर्पण

 हिमशिला पिघलकर अश्रु बनी कविता में वर्णन करता हूं

मेरा तर्पण तुम कर न सके, में तेरा तर्पण करता हूं।

अब गंधमात्र प्रिय तुम्हें हुआ, कर में क्या है यह मत देखो

होकर देवों के सहचर तुम, नर में क्या है यह मत देखो।

तुम हुए निवासी सुरपुर के, धरती पर क्या है मत देखो

ओ अंतर्यामी, तुम मेरे सीने में दिल आहत  देखो।

तेरी मां तेरी नगरी में अबतक तो पहुंच गई होगी

बेकल थी तेरी यादों में अब तेरे पास खड़ी होगी।

उसके आंचल की छाया में संतोष तुम्हें कितना होगा

मैं जा न सका अब तक, सोचो, कितना अफसोस मुझे होगा।

निर्मम होकर भागे का मैं स्नेहिल संबोधन करता हूं

मैं एक अभागा पिता, पुत्र! में तेरा तर्पण करता हूं।













प्रान्तर

एक प्रान्तर का मुसाफिर पूछ किसको राह जाने 

आत्ममोहित पेड़-पौधे कब लगे मंजिल दिखाने।

चांद अपनी तारिकाओं में स्वयं उलझा हुआ है 

रात रूठी है, न जानें क्या  कहां किसने कहा है।

अश्रुकण क्यों ओस बनकर कपोलों पर छा गये हैं

क्यों निशा के  लट उलझकर बादलों-से आ गये हैं।

क्लांत क्यों दिखते अनोकह क्यों हवाएं थम गई हैं

ध्वान्त यों विश्रांत क्यों है,  क्यों दिशाएं जम गई हैं।

कौन है जो मूक बैठा यों नियति की बात माने

स्तब्ध प्रान्तर का मुसाफ़िर पूछ किसको राह जाने ।

गुरुवार, 3 जून 2021

चलो हो गई खत्म कहानी

 इस तट घर में मैं रहता था

उस तक घर में वह रहती थी

बीच भरी गंगा बहती थी।


एक दिन मैंने उसको देखा

उस दिन उसने मुझको देखा

चारों आंखें कुछ कहती थी।


उसने कहा इधर आ जाओ

मैंने कहा इधर आ जाओ

उसने कहा, पहल तेरी हो।


फिर मैं उसको घर ले आया

उसको कितनी सुंदर पाया

जैसे हो मरुथल में छाया।


फिर ऊसर में बाग लगाया

फूल खिले, मलयानिल आया

सबने मिलकर गाना गाया।


एक दिन ऐसा तूफां आया

कौन कहां किस ओर फिंकाया

शव-ही-शव सड़कों पर पाया।


उड़ी गगन में बन बेगानी

बची याद ही एक निशानी

चलो, हो गई खत्म कहानी।

मंगलवार, 1 जून 2021

हार गया मैं

 मैंने कहा - चला जाऊंगा

तुमने कहा - चले जाना,

पर खुलने दो यह तालाबंदी।


अभी निकलना सही न होगा

सब्र करो, मैं क्यों रोकूंगी?

समझ बूझ कर मगर निकलना।


चले गये तुम विन बतलाये

परोपदेशे पांडित्यं की 

बात सही है, मुझे बताकर।


तुम जीते, मैं हार गया हूं,

पोथी पढ़कर ज्ञान न होता

पोंगा पंडित हार गया है।

मैंने देखा

 नयी बन गयी बात पुरानी, मैंने देखा

बाढ़ बना दरिया का पानी, मैंने देखा

अपनी को बनते बेगानी, मैंने देखा

एक हकीकत बनी कहानी, मैंने देखा

हर पतंग को नभ में कटते मैंने देखा

हर प्यारे फुग्गे को फटते मैंने देखा।

अलविदा ओ परी

 पंख लगाकर समय उड़ गया 

वह तो है  कल की ही बात।

अग्निदेव को साखी रख कर

कसमें ली थीं हमने सात।


अग्निदेव  को सौंप तुम्हें मैं

लौट रहा अब खाली हाथ।

पंख लगा कर उड़ी गगन में

तुम चंचल परियों के साध।

वह मिला था

मैं भी ढूंढता था

अपने खोये भारत को

गली-गली, डगर-डगर

मन-ही-मन।


एक दिन उसे देखा

रेलवे प्लैटफॉर्म के पास

चीथड़ों में लिपटा

घूरे पर फिंके पत्तलों से

बीनकर कुछ खाता।


मैंने सोचा

क्या हालत हो गई

उस भले हाकिम की

जिसने न्याय करके

लिया था पंगा

जबर्दस्त शासन से।


मेरी गाड़ी आ गयी तब तक

मुझे ऑफिस पहुंचना था

दोपहर तक।