मंगलवार, 11 सितंबर 2018

लौटा बहुत दिनों के बाद

क्यों पीपल की शीतल छाया या धनखेतों की हरियाली
जोड़ती मुहल्लों को राहें टेढ़ी-मेढ़ी चलने वाली
सोंधी सुगंध तेरी मिटटी की क्या जानूँ क्यों खींच रही
क्यों गेरुआ से शीतल बयार आ प्राणों को है सींच रही
पर अर्थ ढूढ़ती ऑंखें मुझको घूर रहीं आते-जाते
तेरी गोदी में आकर के क्या जुर्म किया मैंने माते?

तेरी मिट्टी के कण चिपके मेरे अवचेतन में मन के
आया था शिशु बन कर अबोध कोने में तेरे आंगन के
मिट्टी तेरी, पानी तेरा, सांसें तेरी, आँगन तेरा
चंदा तेरा, सूरज तेरा, तारों से भरा गगन तेरा
निर्बल, नंगा, भूखा-प्यासा मैं नन्हीं जान लिए आया
तुमने ममता के आँचल से ढँक मुझे प्यार से सहलाया|

हर चूज़ा तनिक बड़ा होकर तज नीड हवा हो जाता है
दाना-पानी के लिए जूझता कहाँ कहाँ हो आता है
पर ज्यों ढलती है शाम, अँधेरा बढ़ता, रात बिताने को
चूज़ा घर को लौटता, वहाँ निश्चिन्त निडर सो जाने को
रोज़ी के लिए भटकते जब चूज़े भी हैं घर फिर आते
तेरी गोदी में आकर के क्या जुर्म किया मैंने माते?

मंगलवार, 14 अगस्त 2018

स्वतंत्रता-दिवस

आओ, स्वतंत्रता-दिवस मनाएँ, धूम मचाएँ
आज़ादी का दिन याद करें, झंडा फहराएँ|
ऊपर-ऊपर हम त्याग-तपस्या के व्रतधारी
नीचे हैं पल्लवपूर्ण सब्ज़ इच्छाएँ सारी 
उजले चरित्र पर चक्कर रहता 
मँडराता हैं
खादी कपड़ा रेशम से बड़ा कहा जाता है|
सुनकर भाषण रेशमी, पेट की क्षुधा बुझाएँ
चूल्हा छुट्टी पर, बर्तन साफ़, किसे बतलाएँ?
अब कौन यहाँ अँगरेज़ जिसे दोषी ठहराएँ?
किसके विरोध में उठें और फाँसी चढ़ जाएँ?
क्या ख़ुद के पूर्वजन्म के पापों का यह फल है?
सपने सारे ढह गए, हाय, भवितव्य प्रबल है|
आओ, नेताओं की महिमा के गीत सुनाएँ
आओ, स्वतंत्रता-दिवस मनाएँ, धूम मचाएँ|

शनिवार, 11 अगस्त 2018

कलम बड़ी या तलवार


टीचर ने लड़के से पूछा कलम बड़ी है या तलवार
उत्तर देना, और बताना अपने उत्तर का आधार|
लड़का हँसता खड़ा हो गया, बोला, करते आप मज़ाक
जब तलवार निकलती है तो मोल कलम का मिट्टी, ख़ाक|
कलम एक या पाँच, जेब में डरती, करती है आराम
तब तलवार दुश्मनों का क्षण भर में करती काम तमाम|
बिरना बना हुआ है हीरो छुरी-कटारी के बल पर
बीए, एमए करके क्या  लखना के घर पर है छप्पर?
कट्टे की ताक़त पर गुंडे संसद में  भर  जाते हैं
कवि, लिख कविता और लेख, फुटपाथों पर म जाते है|
कलम रिफिल माँगती, किन्तु लेखक की हालत ख़स्ता है
रिफिल बड़ी महँगी आती है, उससे लोहू सस्ता है|
पढ़े-लिखे हैं आप, किन्तु टीचर हैं बिरना के बल पर
लखना कूट रहा है क़िस्मत विना जॉब के बैठा घर|
बाजू का है ज़ोर बड़ा, तलवार बड़ी होती है, सर
क़लम माँगती भीख, भटकती सुबह-शाम दरवाजों पर|

शनिवार, 4 अगस्त 2018

सरस्वती पूजा


इतनी भूख लगी है अम्मी? आओ मेरे साथ रहो 
कितने बेर मिठाई कितनी? ले आऊँ एक  बार कहो|

पेट भरेगा तेरा क्या इन  तीन दिनों के राशन से 
ऊब नहीं क्या होती तुमको ग़लत स्तोत्र के भाषण से ?

क्या इन  तीन दिनों की पूजा, तीन दिनों का यह आह्लाद
हो सकता  पर्याप्त मेटने संवत्सर भर का अवसाद ?

है त्यौहार तुम्हारी पूजा, भारत त्यौहारों का देश 
तेरी मूर्ति विसर्जन करते ही न बचेगा कुछ अवशेष| 

मैं न करूँगा पूजा अर्चन और विसर्जन उसके बाद
तुझे रखूँगा सदा ह्रदय मैं, नहीं करूँगा तनिक प्रमाद|    

न मिले कोई करने बातें, मुझसे करो बात दिन-रात
इतनी कहो कथाएँ लम्बी आ जाये अरुणाभ प्रभात| 

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शुक्रवार, 27 जुलाई 2018

रिश्ता ही क्यों जोड़ गए तुम


मेरी खता बिना बतलाये 
मुझे अकेला छोड़ गए तुम

मुझे भ्रमित कर चौराहे पर
बदल राह किस मोड़ गए तुम

मन था अरमानों का मेला
झटके में सब तोड़ गए तुम

बदला लेकर किस क़ुसूर का
तन मन प्राण मरोड़ गए तुम

इतनी जल्दी जाने की थी
रिश्ता ही क्यों जोड़ गए तुम
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बुधवार, 11 जुलाई 2018

मज़बूरी



जवान होने के पहले ही
डलिया, कुदाल और फावड़ा
या फिर भूखे पेट और रोटी के बीच 
किताबों का जमावड़ा 
रोज़गार पाने के लिए कतारों में लगना
टुच्ची नौकरियों की तलाश में भगना
हमारे भविष्य में तो महज़ ख़ानापूरी है|  
एक मर्द होने की बेपर्द मजबूरी है| 

ज़िद उनकी नया घोसला बनाने की
पुराने घर को कतई भूल जाने की 
ख़ातिर-तबज़्ज़ो नये कायम संबंधों की,
माँ-बाप से मिलने पर कठोर प्रतिबंधों की
आना-जाना छोड़िये, याद करना भी गुनाह है
तभी तो आपसे मुहब्बत बेपनाह है| 
गुनाह-ए-बेलज्ज़त, मज़बूर नशाख़ोरी है,
एक मर्द होने की बेपर्द मज़बूरी है| 

आपकी जूतियाँ और झुका हमारा सर,
उसपर भी लगा  हुआ सौ नंबर का डर
मेरा  उफ़ कहना भी रबैया आक्रामक है
आपके हाथों में मोबाईल भयानक है| 
कुछ भी हुआ नहीं, हमें साबित  करना है
जेल जाने से हर वक़्त हमें डरना है
कैसे यकलख़्त मरें, हमें हर-सूं   मरना है
जीते हैं, हक़ीक़त से क्यों यूँ मुकरना है?
लटके हम, आपके हाथों में डोरी है,
एक मर्द होने की बेपर्द मज़बूरी है|       
                 
   
      

सोमवार, 9 जुलाई 2018

ग़ुलामी


इस स्वतन्त्र भारत में मैंने नग्न ग़ुलामी देखी है|

देखा है रोटी को तकती 
भोले  शिशु की आँखों को 
देखा है धरती पर बिखरे 
कटे रेशमी पाँखों को 
देखा है आतप से जलकर 
पटलों का असमय झरना 
देखा है माँ की गोदी में 
भूखे बच्चे का मरना| 

मैंने सूखी फ़सल, किसानों की नाकामी देखी है|   
इस स्वतन्त्र भारत में मैंने नग्न ग़ुलामी देखी है|   

आशा टूटी अथक  
क़िताबी मन्त्रों को रटते-रटते 
ईंटों के भट्ठे पर देखा
शिक्षित युवकों को खटते
कूड़ों पर झोपड़ी बनाकर
देखा शहरों में रहना 
देखा अम्मी के सपनों के 
महलों का ढह कर गिरना| 

अस्मत बेच रही मज़बूरी, बेबस हामी देखी है|
 इस स्वतन्त्र भारत में मैंने नग्न ग़ुलामी देखी है|

देखा है आदर्श  बेचते
नक्क़ालों को, चोरों को 
देखे मैंने केशर चरते
गधों, बकरियों, ढोरों को 
जिसकी लाठी भैंस उसी की,
न्यायालय बिक जाते हैं
लम्बे हाथ न्याय के
अपराधी तक आ  रुक जाते हैं| 

क़ातिल के तन पर लिपटी चादर रामनामी देखी है|  
इस स्वतन्त्र भारत में मैंने नग्न ग़ुलामी देखी है| 

देखे हैं  बाज़ार जहाँ
ईमान खरीदे जाते हैं
देखे हैं बाज़ार जहाँ 
भगवान खरीदे जाते हैं
देखे हैं  बाज़ार जहाँ 
इंसान खरीदे जाते हैं
मुल्क़ बेचकर बँगले 
आलीशान खरीदे जाते हैं| 

खुदगर्जी  में लिपटी आज़ादी की ख़ामी देखी है|       
इस स्वतन्त्र भारत में मैंने नग्न ग़ुलामी देखी है|  

  

सोमवार, 25 जून 2018

भरम

क्या वो आया था कल रात?
नहीं, नहीं
हवा के झोकों से साँकल बजी होगी|
क्या उसने बुलाया मुझे?
नही, नहीं
यूँ ही नटखट पत्तियाँ हिली होंगी|
क्या उसने पुकारा मुझे?
नहीं, नहीं
मंदिर की घण्टियाँ बजी होंगी|
क्या वह चाहता था मुझे,
नहीं, नहीं
वह तो मेरे मन का भरम था,
देर से जाना उसे, बड़ा बेरहम था|

रविवार, 24 जून 2018

ठूँठ


वहाँ, वो, ठूँठ-सा सूखा दरख़्त,
खड़ा है, बाजुओं को उठाये, आसमां की ओर,
माँगता दुआएँ, जो बे-असर होंगी|
सारे पत्ते, काँपते और ज़र्द,
सर्द हवाओं से डरे,
छोड़ गए उसका साथ,
काँपते तन को करने गर्म
चले गए किसी अलाव के पास|
वे अज़ीज़ पत्ते
तब्दील हो राख में
उड़-उड़ कर लिपट गए
ठूँठ के तने से,
पुरानी यादों की तरह|
अब बहारें कभी न आयेंगीं,
कभी न फूटेगी कोई कोंपल|
आज या कल आएगा तूफ़ान,
और वह ठूँठ बन जायेगा जलावन|
ठूँठ की यही नियति है,
और मेरी ?