रविवार, 23 अगस्त 2015

चिड़ियों का जोड़ा

चिड़ियों का जोड़ा 
तृण की तलाश 
झाड़ी में नीड। 

चिड़ियों का जोड़ा 
चुग्गे की खोज में  
चूजों की चींचीं। 

चिड़ियों का जोड़ा 
बच्चे सब उड़ गये 
खोंता वीरान। 

चिड़ियों का जोड़ा
क्षितिज पर निगाहें 
सूनी, सपाट। 

चिड़ियों का जोड़ा
यादों में गिरफ़्त 
दोनों एकाकी।   

सोमवार, 17 अगस्त 2015

मौत

मौत,
या फिर पार करना मील का पत्थर 
(उन सपथिकों की नज़र में,
हमसफ़र जो थे,
अचानक साथ छूटा किन्तु जिनका,
जो बढ़े, पर, आ रहे हैं उसी रास्ते पर)। 

मौत,
या फिर बदलियों में चाँद का छुपना 
(अचानक मुँह छुपाना 
चाँदनी का बादलों में,       
या कि कहना इंगितों में,
छोड़ दो तन्हा मुझे,
या, हो सके तो, भूल जाओ)। 

मौत,
या फिर  शर्करा का वारि में विलयन        
(व्याप्त होना, छोड़कर सीमित रवे की देह,  
रूप का परित्याग,
रस का संप्रवर्तन,
स्वादमय जीवन किसी निस्वाद को देना)। 

मौत 
या फिर बंद होती इक खुली पुस्तक
(इक कहानी जो कहीं सचमुच घटी हो,
या कि जो सिरजी गयी हो कल्पना में,
या कि फिर वृत्तांत हो यायावरी का,
या कि वह आद्यन्त हो 
उन कामनाओं का समुच्चय,
जो कभी साकार होकर जी न पायीं,
किन्तु पाकर लेखनी से रूप,
बन गयीं आख्यायिका सी)।
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सुधांशु कुमार मिश्र     

बुधवार, 12 अगस्त 2015

मरीचिका

मैं आया तो मैंने देखा,
शुभ प्रभात की स्वर्णिम किरणें
बिखर रही थीं हरी घास पर 
मोती-से सीकर बिखरे थे 
हरीतिमा ले चीड़ खड़े थे
कुछ-कुछ जगे, उनींदे कुछ-कुछ। 
तन-मन को आप्यायित करती,
मलयानिल से भी कोमलतर,
हवा डोलती थी चारों दिस
ज्यों ललना के अलक डोलते,
हाँ-ना की अस्पष्ट छाँव में। 

उसने कहा, रुको यायावर,
क्यों बीहड़ की खाक़ छानते?
स्वर्ग नहीं है इस धरती पर
जो हो खड़ा प्रतीक्षा करता,
कि तुम आ रहे हो, स्वागत है। 
मैं कोई किन्नरी नहीं हूँ,
या कवि की स्वप्निल आँखों में
कोरी मनसिज निरी कल्पना, 
मुझसे अच्छी नहीं मिलेगी। 

अगर भटकना ही तेरा आराध्य नहीं है,
अगर चाहते पल भर का विश्राम अलौकिक,
रुक जाओ, बैठो जुल्फों की घनी छाँव में,
सच कहती हूँ, तुम इसको मंजिल मानोगे। 

मैं, अध्वातिखिन्न यायावर,
निद्राभार लिये पलकों पर,
मधुर निमंत्रण पाकर उसका,
ज्यूँ बैठा उस सघन छाँव में,
निंदिया की गोदी में सिर  रख,
पहुँच गया स्वप्निल दुनियाँ में। 

मैं जब जगा, प्रभामय घाटी
कवलित थी गहरी तमसा में,
या फिर लील चुकी थीं जुल्फें
दिवास्वप्न के इन्द्रधनुष को। 

जुगनू के निष्फल प्रयास
ज्यों गर्म तवे पर जल के छींटे,
मृगमरीचिका की छाया-सी मरुस्थली में,
दंतपंक्ति की प्रभा किसी हँसती चुड़ैल की,
आशा की माया रुक-रुक फैला जाती थी। 

मैं क्या जानूँ कि यह तमिस्रा,
लायेगी उज्ज्वल प्रभात फिर,
या यह रजनी द्वार खोलती,
उस अनंत तममय रौरव का,
जिसके आगे मात्र एक कल्पान्त खड़ा है। 

गुरुवार, 6 अगस्त 2015

पुकार

आओ,
बिछी हुई हैं पाँच हजार जोड़ी प्रतीक्षातुर आँखों की,
वर्षों से, स्वागत करने तुम्हारे एक जोड़ी चरणों की,
या अभयंकर मुद्रा में उठे करकमल की,
आओ, आओ, 
गज की नहीं तो गज भर की पुकार पर,
आओ, कृपा कर । 

सुजला, सुफला, मलयज-शीतला,
नीली-हरी पहाड़ियों से घिरी यह धरती,
कितने अरमान लिए बैठी है,
कि  इसकी हरी-हरी घासों से आच्छादित मैदानोँ में,
विचर सकें, चर सकें, लीद सकें मांसल पशु,
सच बनाने बिचारे धूमिल के स्वप्न। 

आओ,
स्नेहायित कर से सुपोषित, लावण्यमयी ललना के सीमन्त
तेरे चरणों की बाट जोहते हो गए हैं क्षाम;
बनो उसके प्राण, भरो उस पथ को,
ऊषा की लाली से। 

जन-मन के अधिनायक,
भाग्यविधाता,
हम मांग रहें हैं कि हम सब,
तव शुभ नामे जागें,
तव शुभ आशीष माँगें,
गायें  तव जयगाथा। 

अब न करो विलम्ब, हम दुखिया सरन तिहारो 
आओ, 
सुनकर हमारे प्राणों की पुकार, कुछ तो विचारो।  

शनिवार, 1 अगस्त 2015

ऋतुसंहार

इतनी तेज धूप,
कि आँखें चौंधियाती हैं,
गरम हवा के झोंके 
डाल जाते आँखों में सड़कों की धूल,
लाल-लाल सूजी ऑंखें देखती हैं
नीम की शाख से लटकते बर्रे का छत्ता;
कई बच्चे हो चुके हैं चेचक से रुग्ण,
माता के गीत 
और नीम डाली की हवा ही आसरे हैं,
महीनों से हस्पताल के किवाड़ नहीं खुले,
कौन सा डॉक्टर और कहाँ की दवा!

कालिदास,
ऋतुसंहार में तुम ने लिखा था 
सर्वं प्रिये चारुतरं वसंते। 

ओ कालिदास,
राजा के दरवार में सब कुछ चारुतम  रहा होगा,
पर जनता के भाग्य में
धूल, धूप, उठी आँख, चेचक,
बर्रे के छत्ते और सदा बंद हस्पताल। 
नीम के पत्तों और माता के गीत के 
सहारे के सिवा
मैं कुछ भी शिव या सुंदर नहीं देखता
तेरे वसंत में।