शनिवार, 1 अगस्त 2015

ऋतुसंहार

इतनी तेज धूप,
कि आँखें चौंधियाती हैं,
गरम हवा के झोंके 
डाल जाते आँखों में सड़कों की धूल,
लाल-लाल सूजी ऑंखें देखती हैं
नीम की शाख से लटकते बर्रे का छत्ता;
कई बच्चे हो चुके हैं चेचक से रुग्ण,
माता के गीत 
और नीम डाली की हवा ही आसरे हैं,
महीनों से हस्पताल के किवाड़ नहीं खुले,
कौन सा डॉक्टर और कहाँ की दवा!

कालिदास,
ऋतुसंहार में तुम ने लिखा था 
सर्वं प्रिये चारुतरं वसंते। 

ओ कालिदास,
राजा के दरवार में सब कुछ चारुतम  रहा होगा,
पर जनता के भाग्य में
धूल, धूप, उठी आँख, चेचक,
बर्रे के छत्ते और सदा बंद हस्पताल। 
नीम के पत्तों और माता के गीत के 
सहारे के सिवा
मैं कुछ भी शिव या सुंदर नहीं देखता
तेरे वसंत में।             

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