बुधवार, 12 अगस्त 2015

मरीचिका

मैं आया तो मैंने देखा,
शुभ प्रभात की स्वर्णिम किरणें
बिखर रही थीं हरी घास पर 
मोती-से सीकर बिखरे थे 
हरीतिमा ले चीड़ खड़े थे
कुछ-कुछ जगे, उनींदे कुछ-कुछ। 
तन-मन को आप्यायित करती,
मलयानिल से भी कोमलतर,
हवा डोलती थी चारों दिस
ज्यों ललना के अलक डोलते,
हाँ-ना की अस्पष्ट छाँव में। 

उसने कहा, रुको यायावर,
क्यों बीहड़ की खाक़ छानते?
स्वर्ग नहीं है इस धरती पर
जो हो खड़ा प्रतीक्षा करता,
कि तुम आ रहे हो, स्वागत है। 
मैं कोई किन्नरी नहीं हूँ,
या कवि की स्वप्निल आँखों में
कोरी मनसिज निरी कल्पना, 
मुझसे अच्छी नहीं मिलेगी। 

अगर भटकना ही तेरा आराध्य नहीं है,
अगर चाहते पल भर का विश्राम अलौकिक,
रुक जाओ, बैठो जुल्फों की घनी छाँव में,
सच कहती हूँ, तुम इसको मंजिल मानोगे। 

मैं, अध्वातिखिन्न यायावर,
निद्राभार लिये पलकों पर,
मधुर निमंत्रण पाकर उसका,
ज्यूँ बैठा उस सघन छाँव में,
निंदिया की गोदी में सिर  रख,
पहुँच गया स्वप्निल दुनियाँ में। 

मैं जब जगा, प्रभामय घाटी
कवलित थी गहरी तमसा में,
या फिर लील चुकी थीं जुल्फें
दिवास्वप्न के इन्द्रधनुष को। 

जुगनू के निष्फल प्रयास
ज्यों गर्म तवे पर जल के छींटे,
मृगमरीचिका की छाया-सी मरुस्थली में,
दंतपंक्ति की प्रभा किसी हँसती चुड़ैल की,
आशा की माया रुक-रुक फैला जाती थी। 

मैं क्या जानूँ कि यह तमिस्रा,
लायेगी उज्ज्वल प्रभात फिर,
या यह रजनी द्वार खोलती,
उस अनंत तममय रौरव का,
जिसके आगे मात्र एक कल्पान्त खड़ा है। 

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