रविवार, 31 अगस्त 2014

कैसी कविता तुम्हें सुनाऊँ?

कैसी कविता तुम्हें सुनाऊँ?

जब समाज निश्छंद हो गया 
जन-जीवन स्वच्छंद हो गया 
चिंतन प्रायः बंद हो गया
सुध खोना आनंद हो गया 
कविता को घुँघरू पहनाकर 
कैसे लय-ताल पर नचाऊँ?
कैसी कविता तुम्हें सुनाऊँ?

सुनो, चतुर्दिक कोलाहल है 
भीड़ हुई जाती पागल है
कहीं गिरा कोई घायल है 
डरा सभी का अंतस्थल है
ज्ञात मुझे भी है सब कुछ पर,
किसकी, किसको, कथा सुनाऊँ?
कैसी कविता तुम्हें सुनाऊँ?

क्या हम हैं विकाश के पथ पर,
या पशुता नाचती शीश पर?
पूर्वाग्रह से ग्रस्त निरंतर 
स्वतः धन्य हैं लज्जा पीकर।  
जिनका मानस तमोलिप्त हो 
कहो, उन्हें कैसे समझाऊँ?
कैसी कविता तुम्हें सुनाऊँ?

सुनते कान न कातर क्रंदन 
श्रव्य रहा केवल अभिनंदन 
वाणी करे मात्र अभिवंदन 
ह्रदय भूल बैठे हैं स्पंदन 
पिघलाने को हृदय अश्ममय
कौन अश्रु नैनों में लाऊँ?
कैसी कविता तुम्हें सुनाऊँ?

मरा अगर आँखों का पानी,
बची, बताओ, कौन कहानी?
कौन सुने बुड्ढों की बानी  
घिसी-पिटी जो हुई पुरानी। 
इस उजाड़ गुलशन में, बोलो,
कैसे सुन्दर फूल खिलाऊँ? 
कैसी कविता तुम्हें सुनाऊँ?

कुछ मत पूछो, प्राण विकल हैं, 
धुँधले दृश्य, कि नैन सजल हैं,
गीत अमृत, या हालाहल हैं,
स्वजन मित्र, या शत्रु प्रबल हैं। 
भीति-भरे अंतर्द्वंदों को
बना हास्य कैसे दिखलाऊँ? 
कैसी कविता तुम्हें सुनाऊँ?
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गुरुवार, 28 अगस्त 2014

जब जब …

जब जब आसमान बादलों से घिर जाता है, 
बारिस होती है और सड़क तालाब बन जाती है, 
मुझे याद आता है वह जुमला, 
जिसके मानी है
कि इस देश के किसान मौसम के साथ जुआ खेलते है।  
मैं भूल जाता हूँ फ़र्क शहर और देहात में, 
शेयर-बाज़ार और लेबर-बाज़ार में,
सोचता हूँ, 
कि इस नल और युधिष्ठिर के देश में, 
किस तबके के लोग जुआ नहीं खेलते हैं!

जब जब मैं सड़क पर अकेला चलता हूँ, 
हर सौ डग पर पीछे मुड़कर देख लेता हूँ। 
डरता हूँ कि कब कौन कहाँ से आकर 
मुझे लूटने की मेहरबानी कर ले  
और मेरी जेब की मायूसी-भरी जाँच के बाद 
मेरे चेहरे पर पाँच तमाचे जड़ दे। 
किसी को देख नहीं रहा हूँ
जो गवाह बने और कहे थाने में 
कि इनके साथ सचमुच एक हादसा हुआ है।          

जब जब मैं ट्रेन में सफ़र करता हूँ  
रुकती है ट्रेन स्टेशन पर तो डरता हूँ 
कब और कितने लोग घुस आयेंगे बेटिकट 
और बैठ जाएँगे जमकर मेरी बर्थ पर। 
अल्लाह मालिक, कहाँ तक जायेंगे 
खेलते ताश, करते भद्दे मज़ाक, खाते मूंगफली,
और मुझे सलाह देते 
कि ऊपर की बर्थ पर चले जाइये
बैठिये, या सोइये, सुकून  से,
हम आपकी बर्थ को यहीं छोड़ जायेंगे,
घर न ले जायेंगे । 

जब जब में बाज़ार जाता हूँ, 
अपनी जेब खाली कर घर लौट आता हूँ। 
वे दिन गए जब कटती थी जेब,
या कोई उस्ताद रूहानी हलकी उँगलियों का जादू 
बटुए पर फेर जाता था।
अब मैं अपने हाथों ही गिनता हूँ नोट
और कर लेता हूँ ख़ुद अपना बटुआ साफ़।  
पिछले साठ वर्षों में हर मैदान में तरक्की हुई है। 
पाकेट मारने का हुनर भी पिछड़ा नहीं है 
इस तरक्की की दौड़ में। 

जब जब मैं टीवी देखता हूँ, 
दिखते हैं तेवर-भरे चेहरे, भंगिमा-भरे भाव,
गुमराह करते इश्तहार 
आगज़नी, क़त्ल और रेप की खबरें, 
भौंड़े मज़ाक, गबन, डाके, आतंकवाद
या, फिर, दिखते हैं,
किसी, देश के कर्णधार, महामहिम का मुँह
और उनकी पौच से उझकते उनके नौनिहाल 
मुझे अंदेशा अचरज होता है 
कि चैनल अचानक, कैसे, ख़ुद-ब-ख़ुद बदल गया,
विना सब्स्क्राइब किये एनिमल प्लैनेट कैसे लग गया!     
यह सब देखकर मुझे याद आता है 
कि ऑस्ट्रेलिया में कंगारू पाया जाता हैं। 
पर मेरा देश गैंडों का देश है,
आदमी की खाल में भेंड़ों का देश है, 
या भैंसों का देश है,
जहां खेतों में गेंहूँ नहीं उपजता,
चारा उपजता है, महामहिम भैँसोँ के लिए। 
                  
जब जब मैं पढ़ता हूँ अख़बार 
तो मोटे-मोटे हरुफ़ चिल्लाते हैं 
कि फ़लां ज़गह एक लड़की का हुआ बलात्कार।  
फिर मैं अपना चेहरा अख़बार से ढँक लेता हूँ 
और सोचता हूँ,
कि जहाँ अनगिनत शोहदे साठ वर्षों से 
माँ पर करते रहे हैं बलात्कार, 
वहाँ अगर बेटी की आबरू लुटी सरेआम 
तो क्या अचरज है!
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बुधवार, 20 अगस्त 2014

विद्वत्तमा की नगरी में कालिदास

विद्वत्तमा की नगरी में, 
विवाह के इच्छुक, 
पर वाद में विजित,
ख्याति की खयानत से खीजे,
पंडितों ने किया प्रण 
कि अगर इस ज्ञान-गर्विता को
सबक नहीं सिखाया,
आठ-आठ आँसू नहीं रुलाया,
नहीं समझाया कि हम क्या चीज हैं,
तो, विद्वज्जनों, 
हम सचमुच नाचीज हैं । 

चल पड़े वे, ढूंढ़ने एक महामूर्ख,
जो जल्द ही मिल गया। 
काट नहीं रहा था डाल 
जिस पर वह बैठा था,
अलबत्ता, काट चुका था वह डाल,
गिरा हुआ था औंधे मुँह । 

कहा पंडितों ने, शाबाश
उठो, झाड़ो बदन,
चलो हमारे साथ,
करवाएंगे शादी तेरी 
राजकुमारी से 
बनायेंगे तुम्हें राजा का दामाद। 
करना तुम्हें है एक छोटा सा काम,
जब तक न हो जाये काम तमाम,
इशारों से करना बात,
बोलना नहीं कुछ,
बिना लिए फेरे सात। 

फिर हो गया शास्त्रार्थ शुरू,
विद्वत्तमा और दुल्हेराम थे रूबरू
उसने एक उँगली दिखाई तो  
दूल्हे ने दिखाई उँगलियाँ दो,
उसने दिखाई तर्जनी 
इसने दिखाया अँगूठा,
वह हँसी, तो, यह रूठा।   
उसने दिखाया पंजा,
इसने दिखाया मुक्का,
नन्हे-से तीर पर भारी-सा तुक्का।   
सभी निष्णात
पंडित-जन बैठे ही थे, 
अर्थ निकालने की ख़ातिर 
फ़न के उस्ताद, 
मँजे हुए, पक्के शातिर। 

बेबश, मूकीकृता,  
विद्वत्तमा हार गयी,
पंडितों की चाल
डंका पीट, बाज़ी मार गयी ।     

दुल्हेराम मालामाल । 
राजा के दामाद बने 
पहन कर जयमाल । 
पंडितों ने डाला 
वर की योग्यता पर प्रकाश,
ये गुरु हमारे हैं,
यही हैं कालिदास। 

दोस्तों, ये सचमुच हैं कालिदास,
अब ये बनाएंगे उष्ट्र को उट्र का अपभ्रंश 
कौन यहाँ बैठा है लट्ठ लिए 
करने प्रमाणित कि 
उष्ट्र का अपभ्रंश उट्र है। 

अब ये रचेंगे नया मेघदूत, रघुवंश 
नया होगा घिसा-पिटा कुमारसंभव, 
होंगे आर्गनाइज्ड दर्जनों सेमिनार, 
छपेंगे इनके अनेक रिसर्च-पेपर।
प्रकृति के नियमों को ये प्राकृत में घोलेंगे,
लिंग, जाति, भेद-भाव हर ज़गह टटोलेंगे,
वर्ष में दो बार ज्ञान की लँगोट खोलेंगे,  
एसी और ईसी में हर मुद्दे पर बोलेंगे। 


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एसी = Academic Council; ईसी = Executive Council
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मंगलवार, 19 अगस्त 2014

पति : नाम एक रूप अनेक

        (1)
पति अपने प्रथम आयाम के 
एक चरण में 
पालक होता है।  
उसकी व्युत्पत्ति है उसी शब्द-मूल से 
जहाँ से पिता का, 
जो देता है अन्न-वस्त्र,
करता है रक्षा,
ढोता है दायित्व, 
पूरे परिवार का
संचालक होता है। 
नारी आती है  
भर्ता के हाथ में
होकर परिणीता,     
तब नारी भार्या होती है । 

पति अपने प्रथम आयाम के 
इतर चरण में 
साथी होता है। 
पति बनता है स्थपति 
करता है मदद 
घरौंदा बनाने में,
उसको बसाने में,
मिलजुल कर देने स्नेह को मूर्त रूप 
जिसमें प्रेम, वात्सल्य बन उभरता है; 
पेशानी का पसीना 
आँचल में दूध बन उतरता है,
और तब कांता बनती है, 
सहधर्मिणी, जाया, कुटुम्बिनी।             

पति अपने प्रथम आयाम के 
अन्य चरण में 
उपभोक्ता होता है। 
तब नारी  
पालिता नहीं, साथी नहीं,
भोग्या बन जाती है,
तब उसके नाम हैं काव्यपूर्ण, 
रमणी, रामा, वरारोहा, सुश्रोणि 
और, कदाचित, नितम्बिनी भी  
नारी बन जाती है वस्तु या चीज़
जो होती है निष्प्राण, 
भावनाविहीन, 
जिसका रोना या हँसना,
हर्ष या विषाद,
मात्र एक कविता है, 
असलियत से दूर 
और फंतासी की उपज । 

पति अपने प्रथम आयाम के 
अंतिम चरण में 
बन जाता है चौपाया । 
जानवर । 
रेपिस्ट । 
गोश्त का भूखा,
ख़ून का प्यासा, 
तब पत्नी न पालिता है,
न कांता है, न ललना है,           
कुछ नहीं, बेशक, और कुछ नहीं,
केवल गोश्त का एक टुकड़ा है 
गर्म, लज़ीज़, ज़ायकेदार। 

       (2) 
पति के दूसरे आयाम में 
अनेक चरण हैं,
गोजर की तरह ।  
पति (खालिस), कुलपति, 
भूमिपति, पूँजीपति,
नरपति (नारीपति नहीं), 
भूपति, राष्ट्रपति,
अगैरह, बगैरह। 
और हाँ,
उपपति का भी है प्रावधान,
उपपति, जो होता है,
अंग्रेज़ी में पएर'मूर,
संस्कृत में जार,
हिंदी में यार,
और पति की अनुपस्थिति में 
होता है भतार   

     (3) 
दोस्तो, जाते-जाते 
एक बात और कह दूँ,
इन दोनों आयामों का  
है एक कार्टेसिअन प्रोडक्ट।  
इस माजरे का हिसाब
किसी ऐसे आदमी से पूछो
जिसके रियाज़िआत से हों ताल्लुक़ात,  
लेकिन वह किसी नारी का पति हो  

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पएर'मूर (paramour) = जार

सोमवार, 18 अगस्त 2014

राम, मैं तेरे हृदय की ऊर्मियों को जानता हूँ

राम, मैं तेरे हृदय की ऊर्मियों को जानता हूँ,  
अंशतः, पूरा नहीं तो, मैं तुम्हें पहचानता हूँ ।  

थी सपत्नी-दंश से व्याकुल निरंतर माँ तुम्हारी,
एक खूँटे से बँधी थी गाय जैसी वह बिचारी,
दूर कोने में भवन के जी रही एकांत जीवन, 
एक तेरे आसरे पर ही टिके थे प्राण, तन, मन, 
मौन तुम थे देखते, तेरे अधर स्मिति ढो रहे थे, 
जानता हूँ मैं, प्रफुल्लित नैन से तुम रो रहे थे ।     

वह करुण स्मिति हर हृदय पर छाप अपना छोड़ती थी, 
एक सरिता में हृदय के उत्स सारे जोड़ती थी,
सोचते थे लोग, तुम राजा बने तो हर्ष होगा, 
हर गिरे, भूखे, प्रपीड़ित व्यक्ति का उत्कर्ष होगा, 
तुम व्यथा का अर्थ अपने अनुभवों से जानते थे, 
लोकहित में त्याग को कर्तव्य अपना मानते थे । 

एक आँधी आ गयी, जब बात आगे बढ़ रही थी, 
स्वार्थपर षड्यंत्र तब तेरी विमाता गढ़ रही थी, 
लोग थे अनभिज्ञ, पर तुम बात सारी जानते थे, 
इसलिये भूकंप के पदचाप को पहचानते थे, 
कर सके अम्लानमुख स्वागत नियति का तुम इसी से, 
ले सके वनवास का तोहफ़ा अनोखा तुम ख़ुशी से । 

पर, सहन क्या कर सका जनमत भरत का भूप होना     
एक कुटिलापुत्र का श्रीराम, या प्रतिरूप, होना 
आग थी सारी अयोध्या, ऊर्मिमय विप्लव स्फुटित था 
टहनियों पर पेड़ के आक्रोश भीषण पल्लवित था                
भाग कर आया भरत लेने दवा उस ज्वार का था 
ठीक कहता था लखन, आना नहीं वह प्यार का था । 

जानते थे तुम कि जनता मान तेरी बात लेगी     
तुम अगर सन्देश दोगे, तो, भरत का साथ देगी।
पादुका भेजी भरत सँग, थी वही संदेश तेरा,  
थी वही निर्देश तेरा, थी वही आदेश तेरा। 
और क्या था अन्यथा जो हो सके सन्देश संबल,     
त्याज्य अब कुछ भी नहीं, बस, तन ढँके था एक वल्कल।  

राम, सोने की बनी थी पादुका, क्या सच यही है?
साथ वल्कल का कनक से, बात यह जमती नहीं है । 
क्या भरत, तज कर कनक को, काष्ठपूजा में निरत था?   
क्या कनक के पीठ पर रख काष्ठ, प्रभुता से विरत था?
सच यही है, पादुका प्रतिरूप ढल कर बन गयी थी,     
राम की ही पादुका है, किंवदन्ती चल गयी थी । 

अस्तु, नंगे पाँव तुम आगे चले, जंगल सघन था,  
वीथियां कंटकमयी, दुस्साध्य ही आवागमन था ।
मृत्तिका में रंग भरते पाँव तेरे छिल गये थे,
छाप पग के पत्थरों पर फूल जैसे खिल गये थे।
रक्त से क्वाँरी धरा ने मांग अपनी थी सजायी, 
पक्षियों ने गान गाये, वायु ने बंशी बजायी । 

इस अनोखे व्याह पर सीता कभी कुछ भी न बोली,  
कौन जाने, याकि करती हो अकेले में ठिठोली, 
प्रण किया था तुम न दोगे सौत की सौगात लाकर,    
हो महल या वन, रखोगे तुम उसे रानी बनाकर।
क्या इसीसे जंगलों की ख़ाक तुम यूँ छानते थे, 
और भूपति यदि बने, प्रण-भंग होगा, मानते थे ?

ख़ैर, छोड़ो, ढल गया दिन, सूर्य ने ले ली बिदाई, 
चाँदनी में एक कुटिया फूस की तुमने बनायी, 
कल करें एकत्र फल या मूल, निर्णय हो चुका था,
मात्र जल पीकर ज़मीं पर प्यार तेरा सो चुका था ।
राम, तुम रोये नहीं थे, पर कहो, क्या सो सके थे ?
चिन्तनोर्मिल हलचलों में स्वस्थमन क्या हो सके थे ? 
              
रात बीती, दिन हुआ, फिर दिन ढला औ रात आयी,     
मास बीते, वर्ष बीते, काल ने सज्जा सजायी ।    
स्वर्ण की तृष्णा कहाँ से जानकीमन में समायी ?
वह पली थी स्वर्ण में, त्यज स्वर्ण तेरे साथ आयी।    
स्वर्णमृग का रूप लेकर काल उसके पास आया,           
जल्पना-सा कथ्य यह मुझको नहीं है रास आया।       

राम, तेरे आगमन से भीति ऋषियों की हटी थी, 
वे सुरक्षित जी रहे थे, राक्षसी प्रभुता घटी थी। 
कौन शोषक, सब जियें सुख से, स्वतः स्वीकारता है ?
कौन दलितों, शोषितों को प्यार से पुचकारता है ?
राम, हस्तक्षेप तेरा डाकुओं को खल रहा था, 
रोष का पावक प्रबल उनके हृदय में जल रहा था ।   
  
जानकी का रूप भी था पास तेरे न्यास उनका,  
कामनाओं से ज्वलित था श्वास-प्रत्याश्वास उनका। 
सोचते थे, एक हीरा क्योँ पड़ा है भिक्षुकर में !
जंगलों की रौशनी को क्यों न ले आयें महल में !
शोषकों का अभिलषित क्यों शोषितों के पास होगा ? 
क्यों सबल भी शील या शालीनता का दास होगा ?  

युद्ध करना हिंस्र पशु शायद कभी स्वीकारते हैं,
स्तेय-कौशलयुक्त होकर भक्ष्य मृग को मारते हैं।         
एक दिन तुम और लक्ष्मण जंगलों में जा चुके थे, 
जानकी को आपदा के चिह्न भी बतला चुके थे।  
छिप खड़ा पौलस्त्य था हरने किसी विधि रुपनिधि को,  
चौर्य में ही शौर्य दिखला, ले उड़ा वह जानकी को। 

अह्नि के अवसान पर तुम औ लखन जब घर पधारे, 
देहली पर दिख रहे थे दस्युओं के कृत्य सारे। 
थी दिशाएँ चुप, अनिल रुक-रुक, झिझकते, बह रहे थे,    
फूल वेणी के धरा पर कीर्ण कुछ-कुछ कह रहे थे,
जानकी थी लुप्त, ऋषिगण मूक, केवल रो रहे थे, 
बेबशी के घाव ढलते अश्रुकण से धो रहे थे। 

एक ऋषि घायल पड़ा था मृत्यु से कुछ क्षण बचाकर, 
क्या हुआ, किसने किया, उसने कहा तुमको बुलाकर, 
और बोला, मृत्युमुख हूँ, दे वचन आदेश लोगे,  
प्राण को भी दांव पर रख, लो शपथ, प्रतिशोध लोगे,
त्राण सीता का करोगे, अब यही हो लक्ष्य तेरा, 
तुम प्रलय के ज्वार हो, अन्याय ही है भक्ष्य तेरा। 

राम, तुमने की प्रतिज्ञा, ऋषि मुमूर्षु वहाँ पड़े थे 
साथ, चारों ओर, लक्ष्मण और ऋषिगण भी खड़े थे       
था विकट क्षण जब करुण-स्मिति छोड़ अधरों को भगी थी,     
या फड़कती धमनियों के रक्त में जाकर मिली थी ।
तब तुम्हारी पौरुषेया शक्ति गर्जन कर रही थी
ख़ून में अंगार भरती प्रलयसर्जन कर रही थी । 

फिर किया आह्वान तुमने, ऋषि हज़ारों आ गए थे; 
देश के, भूगोल के, हर भेद को समझा गए थे।
युद्धनैतिक, राजनैतिक, कूटनैतिक दांव सारे, 
ऋषिगणों को ज्ञात थे, वे बन गए साधन तुम्हारे।
योजना भी बन गयी, कर्तव्य उसका अनुसरण था,  
वालि-मर्दन, मित्रता सुग्रीब की, पहला चरण था।             

दो युवक सैनिक-कला के शीर्ष पण्डित हो सकेँगे,  
अननुशासित भीड़ में भी धैर्य, साहस बो सकेंगे,  
एक अनुशासित चमू का रूप उसको दे सकेंगे, 
क्या कभी दशग्रीव से लोहा समर में ले सकेंगे ?          
ये बड़े थे प्रश्न, कोई भी न उत्तर जानता था 
गर्व में दशकंठ इसको बालहठ-सा मानता था । 

एक दिन सेना उदधि कर पार लंका आ गयी थी, 
शुष्क तृण के पुंज पर बन कर हुताशन छा गयी थी, 
थे खड़े हनुमान, उंचासों पवन को न्योत करके,     
थे खड़े सुग्रीब, अंगद सैन्य ओतप्रोत करके,
त्राण करने जानकी का शीघ्र ही दिन एक आया 
जब विजय थी हाथ तेरे, शत्रु का करके सफ़ाया । 

पीठ पर बैठा विभीषण स्तोत्र तेरे गा रहा था, 
राक्षसों को राम-पूजन की विधा समझा रहा था,      
जानकी, हो प्रेमविह्वल, वाटिका से आ चुकी थी,  
मोल अपने धैर्य का तुमको निरख कर पा चुकी थी, 
तब, सुना, तुम हो गए निरपेक्ष सीता से अचानक,  
बात बोले तौलकर, पर बात थी कैसी भयानक !

"मैथिली, यह युद्ध तेरे अर्थ मैं करता नहीं था, 
मैं तुम्हारे भाग्य या दुर्भाग्य से डरता नहीं था, 
एक नारी के लिए करना नहीं संगर मुझे था, 
विष-भरे लोकापवादों का भयानक डर मुझे था,   
युद्ध रघुकुल का बचाने मान मैं करने चला था,      
सिर उठा कर के जियें, मर जाएँ अथवा, फ़ैसला था। 
            
शील पर तेरे लगी है लांछना, सब क्या कहेंगे ?
सिर झुकाये राजकुल के लोग सब ताने सुनेंगे; 
राम सीता को लिए निर्लज्ज होकर जी रहा है, 
एक राक्षस के किये उच्छिष्ट जल को पी रहा है । 
इसलिए तुम मुक्त हो, जाओ जहाँ हो मन तुम्हारा 
तुम जियो, अथवा मरो, स्वीकार लो निर्णय हमारा।" 

राम, रघुकुल की कहानी, स्वल्प ही, पर जानता हूँ, 
मान से है न्याय गुरुतर धर्म, फिर भी, मानता हूँ ।
उस खुले अन्याय का उत्तर दिया था जानकी ने, 
जल मरे अविलम्ब, यह निर्णय लिया था जानकी ने । 
किन्तु हस्तक्षेप ऋषि-मुनि-देवताओं ने किया था,   
मैथिली को, हो विवश, स्वीकार तुमने कर लिया था ।      

लौट तुम आये अयोध्या, बन गए राजा प्रतापी,  
पुण्यरत जन थे सुखी, थे मिट गए दुर्दांत पापी,
सत्य है यदि बात, तो लोकापवादों से चतुर्दिक्
क्यों भरा था? जानकी को क्यों किये थे लोग धिक्-धिक् ?
क्यों मृषा लोकोपवादों से तुम्हारा खिन्न था मन,
जीतकर मन क्या असंभव था असत अपवाद-खंडन ?

राम, शंका, द्वेष, डर से यदि भरा जनमन रहेगा 
तो अटल इस मेदिनी पर पाप का शासन रहेगा।
जब तलक शंका हृदय पर है किये अधिकार अपना 
तब तलक संमृद्धि, निष्ठा, शांति होंगी मात्र सपना ।
साक्ष्य देवों का, अनल का भी, न उसको रोक पाया,     
वनगमन का दंड बन कर जानकी का शोक आया ।     
   
राम, तुमने प्रिय-जनों को दंड देना धर्म समझा, 
न्याय या अन्याय का निर्णय नहीं निज-कर्म समझा
मान रघुकुल का तुम्हारे शीष पर चढ़ बोलता था, 
मन तुम्हारा तुच्छतम आक्षेप से भी डोलता था।
कौन, मर्यादा किसे कहते, तुम्हें आकर सिखाता, 
धर्म के गूढ़ार्थ को था कौन जो तुमको बताता ?

न्याय की तुम मूर्ति थे, सो मूर्ति बन कर जी रहे थे, 
घोल कर अन्याय को मधुपर्क जैसा पी रहे थे ।
हो लखन, या जानकी, या भ्रूण उसकी कोख का हो, 
आह हो, या रो रहा अंतर किसी निर्दोष का हो,               
था डिगा सकता न तुमको, सत्य मर्यादापुरुष थे, 
वज्र था तेरा हृदय, तुम प्रस्तरों से भी परुष थे। 

राम, तेरे धर्म का था अर्थ केवल आत्मपीड़न,
था छिपा अवचेतना में दुख-भरा निज बाल-जीवन, 
सौत के अन्याय जननी पर बड़े होते रहे थे,   
तुम सहमकर एक कोने में खड़े होते रहे थे। 
आत्म में थे तुम स्वयं कर जानकी-लक्ष्मण समाहित, 
इसलिए उस ओर होता था स्वयं-पीड़न प्रवाहित। 
      
दंड सीता को मिला, वह भूमि में जाकर समायी, 
डूब सरयू में लखन ने प्राण छोड़े, शांति पायी। 
तोड़ करके धैर्य अपना, तुम बिलखकर रो चुके थे, 
राज्य से, या प्राण से भी, प्रेम प्रायः खो चुके थे, 
राज्य दे अधिकारियों को तुम नदी के पास आये, 
राह लक्ष्मण की पकड़ कर, शांत, सरयू में समाये। 

राम, यह आधी-अधूरी सी कथा मैंने कही है,
तुम अकेले जानते हो क्या ग़लत है क्या सही है, 
किन सुकोमल भावनाओं को दबा तुम जी रहे थे, 
और कितनी वेदना को बिन दिखाये पी रहे थे । 
तुम कुसुम-से थे सुकोमल, वज्रवत थी मूर्ति तेरी, 
बस इसी से आज तक अक्षुण्ण चलती कीर्ति तेरी । 

             
             
      

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