शुक्रवार, 1 अगस्त 2014

सर झुकाने के सौ बहाने हैं

उनके होठों से गालियाँ झरतीं,  
हमारे होठों पै तराने हैं  

चाहते, वो कहें कि ये कर दो, 
हुक्म लेने के हम दीवाने हैं  

झूठ हो, सच हो, बदगुमानी हो,
हमें, बस, हाँ में हाँ मिलाने हैं  

ख़ुद को नौकर  कहें, मगर उनका,
इसी ग़फ़लत में हम सयाने हैं  

उनके जूतों की छाँह में अपने  
शब--लज्ज़त के आशियाने हैं  

जोड़ते हाथ पत्थरों को भी,
हमारे होश क्या ठिकाने हैं  

हमारे ख़ून में ग़ुलामी है,
सर झुकाने के सौ बहाने हैं  


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1 टिप्पणी:

  1. खून का दोष मान सकता हूँ
    उससे जीवन है जान सकता हूँ
    आज के दौर की तकनीकी मे
    खून बदलेगा जान सकता हूँ

    खून से आत्मबल संभलता है
    आना-जाना उसी से चलता है
    मेरा विश्वास मुझसे कहता है
    ज्ञान से खून भी बदलता है

    सर झुकाना तो एक बहाना है
    स्वार्थ इस तथ्व का पैमाना है
    आत्मचिंतन की कुछ जरूरत है
    सर उठेगा यह मैंने माना है

    उठता सर खून को बदल देगा
    अपनी श्रद्धा से आत्मबल देगा
    आप निरपेक्ष होके देखो तो
    हर समस्या का एक हल देगा

    हाथ पत्थर को पूजते क्यों हैं
    सर झुकाते हैं झूझते क्यों हैं
    सारे प्रश्नो का एक उत्तर है
    कर्मनिष्ठा को भूलते क्यों हैं

    हाथ पत्थर को फेंकते क्यों हैं
    शब्द पत्थर को भेदते क्यों हैं
    पत्थरों की अजीब दुनिया है
    मूल्य श्रद्धा का तोलते क्यों हैं

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