रविवार, 31 अगस्त 2014

कैसी कविता तुम्हें सुनाऊँ?

कैसी कविता तुम्हें सुनाऊँ?

जब समाज निश्छंद हो गया 
जन-जीवन स्वच्छंद हो गया 
चिंतन प्रायः बंद हो गया
सुध खोना आनंद हो गया 
कविता को घुँघरू पहनाकर 
कैसे लय-ताल पर नचाऊँ?
कैसी कविता तुम्हें सुनाऊँ?

सुनो, चतुर्दिक कोलाहल है 
भीड़ हुई जाती पागल है
कहीं गिरा कोई घायल है 
डरा सभी का अंतस्थल है
ज्ञात मुझे भी है सब कुछ पर,
किसकी, किसको, कथा सुनाऊँ?
कैसी कविता तुम्हें सुनाऊँ?

क्या हम हैं विकाश के पथ पर,
या पशुता नाचती शीश पर?
पूर्वाग्रह से ग्रस्त निरंतर 
स्वतः धन्य हैं लज्जा पीकर।  
जिनका मानस तमोलिप्त हो 
कहो, उन्हें कैसे समझाऊँ?
कैसी कविता तुम्हें सुनाऊँ?

सुनते कान न कातर क्रंदन 
श्रव्य रहा केवल अभिनंदन 
वाणी करे मात्र अभिवंदन 
ह्रदय भूल बैठे हैं स्पंदन 
पिघलाने को हृदय अश्ममय
कौन अश्रु नैनों में लाऊँ?
कैसी कविता तुम्हें सुनाऊँ?

मरा अगर आँखों का पानी,
बची, बताओ, कौन कहानी?
कौन सुने बुड्ढों की बानी  
घिसी-पिटी जो हुई पुरानी। 
इस उजाड़ गुलशन में, बोलो,
कैसे सुन्दर फूल खिलाऊँ? 
कैसी कविता तुम्हें सुनाऊँ?

कुछ मत पूछो, प्राण विकल हैं, 
धुँधले दृश्य, कि नैन सजल हैं,
गीत अमृत, या हालाहल हैं,
स्वजन मित्र, या शत्रु प्रबल हैं। 
भीति-भरे अंतर्द्वंदों को
बना हास्य कैसे दिखलाऊँ? 
कैसी कविता तुम्हें सुनाऊँ?
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