मंगलवार, 29 जुलाई 2014

बोल, तेरी उँगलियाँ पकड़े कहाँ तक मैं चलूँगा ?


बोल, तेरी उँगलियाँ पकड़े कहाँ तक मैं चलूँगा ?

देख दूर अतीत में, गन्तव्य जब कोई नहीं था
राह जब कोई नहीं थी, साथ जब कोई नहीँ था,
झाड़ियों की ओट से तुम गए बन कर सहारा,
और बोले, सोच मत, तेरे लिए तो मैं यहीं था,
साथ मिलकर ढूँढ लेंगे किस तरफ मंज़िल हमारी,              
रात जब आया करेगी  दीप बनकर मैं बलूँगा  

रात आयी, हाँ, दिया बनकर किया तुमने उजाला
पाँव जब फिसले, बढ़ाकर हाथ, हाँ, तुमने सँभाला,
थक गया जब, फेर सर पर हाथ, हाँ, तुमने सुलाया,
जब उषा आयी, पुकारा प्यार से, मुझको जगाया,
फिर चले हम, क्या पता था, मैं  जिसे मंज़िल समझता 
मात्र एक सराब है, जिसको नहीं मैं छू सकूंगा  

है नहीं मंज़िल अगर, तो पथ सभी हैं एक जैसे,                       
भटकना, जाना, सफ़र करना, सभी हैं एक जैसे
और, रुकना, याकि फिर मुड़कर कहीं से लौट चलना,
लौट चलना भी कहाँ ? अब चाहता कुछ भी कहना,  
हम कहाँ तक चुके हैं पूछ कर भी क्या करूँगा ?  
बोल, तेरी उँगलियाँ पकड़े कहाँ तक मैं चलूँगा ?            

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