बूचरखाने
को जाती
ट्रक पर लदी गायें;
कुछ खा रहीं सूखे
पुआल
और कुछ कर रहीं
पागुर;
भविष्य से बेखबर
बीच सड़क पर ।
दिख रही है पीठ उस
साये की
जो अकेला जा रहा
है
सर्पिल सड़क पर
मिलने अदृष्ट
में;
आगे क्षितिज छूती सड़क
की लकीर
पीछे सुनसान
विगत कल की छाँह
जो निकली थी अरण्य
से
पगडंडी बनकर।
आतशी लपटों में
लिपटी
जल रही है कॉलिज की इमारत,
सामने खड़ी है भीड़
चीखते रहनुमाओं
की;
जला डालेंगे
सबकुछ
नहीं, तो, बात लो मान;
मांगें हमारी
बेशक वाज़िब हैं।
बोलते हैं बैनर
यह कॉलिज हमारा है
दीगरों का दाखला
हमें हरगिज़
मंज़ूर नहीं।
तीन सागरों से उठकर
सुनामियों ने हाथ
मिलाये,
ढँक लिया पूरे मुल्क का
नक्शा;
ऊपरी कोने पर
गर्द-ओ-ग़ुबार है,
गर्दिश है, चीख है,
बचाओ-बचाओ की करुण
पुकार है;
तैर रहे आसमान पर
काले बादल और गड़गड़ाते
एरोप्लेन ।
दुकानें लगी हैं,
अनाज़ की, कपड़ों
की,
दूध-से सुफ़ेद मर्मरी
टाइल्स की,
बिन-पढ़े शिक्षा की,
बिन-किये प्रतीक्षा की,
मंत्र तंत्र, दीक्षा की,
प्रियकर समीक्षा की,
दाय की, न्याय
की,
ढाने सितम और करने अन्याय की,
जोरू, जमीन, ज़र की,
सच्ची झूठी खबर की,
रात के चारों प्रहर की
।
एक बड़े बोर्ड पर
साफ़-साफ़ लिखा है:
"सब-कुछ बिकता
है"।
एक
वृद्धा,
सौ पर एक
दुःशासन।
सौ करोड़ क्लीवों
की
उमड़ती सभा में
सरेआम चीरहरण।
बलात्कार शीलहरण।
चीत्कार।
हे कृष्ण, हे कृष्ण
अनुगुंजित भूमण्डल।
निष्फल।
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